उत्तराखण्ड में बंजर होती कृषि भूमि पर बीज वितरण की औपचारिकता

उत्तराखण्ड में बंजर होती कृषि भूमि पर बीज वितरण की औपचारिकता
रतन सिंह असवाल का आलेख
एक नीतिगत विश्लेषण जो सवाल करता है कि क्या कृषि विभाग की योजनाएँ ज़मीनी हकीकत से जुड़ी हैं या महज़ बजटीय खानापूर्ति हैं।
उत्तराखण्ड के पर्वतीय अंचलों में एक वार्षिक अनुष्ठान दोहराया जा रहा है। कृषि विभाग गेहूँ और मसूर के बीज वितरित कर रहा है। वहीं, इन पहाड़ों में हज़ारों हेक्टेयर ज़मीन बंजर पड़ी है, जो कभी लहलहाती फसलों का घर थी। यह विरोधाभास एक बुनियादी सवाल खड़ा करता है: क्या यह बीज वितरण वास्तव में “बंजर जोतों को पुनः सरसब्ज” करने की एक गंभीर पहल है, या यह केवल वित्तीय वर्ष के अंत में बजट खर्च करने और कागज़ी लक्ष्यों को पूरा करने की एक प्रशासनिक कवायद है?
आँकड़ों में सत्यापन अनुपस्थित किसी भी योजना की सफलता उसके सत्यापन पर निर्भर करती है। विभाग बीज वितरित करता है, लेकिन इस बात की कोई पुख्ता जाँच-पड़ताल नहीं होती कि यह बीज पात्र किसान के खेत तक पहुँचा भी या नहीं? क्या इसे बोया गया, या केवल उपभोग कर लिया गया?
यदि हम गढ़वाल के किसी भी जनपद, जैसे पौड़ी के क़लज़ीखाल विकासखंड का ही उदाहरण लें, तो अधिकांश कृषिजोत बंजर हैं। इन बंजर खेतों के मालिकों को भी बीज दिया जा रहा है। क्या विभाग के पास विगत पाँच वर्षों के सत्यापित फसली उत्पादन के आँकड़े हैं, जिनके आधार पर यह नई रणनीति बनाई गई हो? और यदि ऐसे आँकड़े हैं भी, तो उनका सत्यापन किस एजेंसी ने किया है? इन आँकड़ों के अभाव में, यह पूरी कवायद एक अँधेरे में तीर चलाने जैसी लगती है।
नीतिगत प्राथमिकताएँ और ज़मीनी हकीकत का अंतर
यदि हम यह मान भी लें कि विभाग की मंशा बंजर जोतों को पुनः आबाद करने की है, तो यह पहल स्वागतयोग्य है। लेकिन यह पहल अपने आप में खतरनाक रूप से अधूरी है। केवल बीज दे देने से बंजर खेत आबाद नहीं हो जाते। असली चुनौतियाँ तो बीज वितरण के बाद शुरू होती हैं, जिन्हें हमारी कृषि नीतियाँ लगातार नज़रअंदाज़ कर रही हैं।
1. असिंचित भूमि और जल प्रबंधन,
यह सर्वविदित है कि पहाड़ की 90% से अधिक भूमि वर्षा-आधारित (असिंचित) है। सवाल है कि क्या यह बीज ऐसी परिस्थितियों के लिए उपयुक्त हैं? और यदि हैं, तो भी विभाग ने पारंपरिक सिंचाई के अभाव में रेन वाटर हार्वेस्टिंग या ‘चाल-खाल’ जैसी परंपरागत प्रणालियों को पुनर्जीवित करने के लिए क्या किया?
कम पानी में बेहतर उत्पादन देने वाली वैश्विक तकनीकें और बीज उपलब्ध हैं, लेकिन उन्हें खेतों तक पहुँचाने की कोई ठोस कार्ययोजना नहीं दिखती।
2. वन्यजीवों का आतंक
पर्वतीय कृषि की आज यह सबसे ज्वलंत समस्या है। बिखरी हुई जोतों पर जंगली सुअर, बंदर और आवारा पशुओं का आतंक इस कदर है कि किसान ने हथियार डाल दिए हैं। क्या कृषि विभाग ने वन विभाग के साथ समन्वय स्थापित कर फसल सुरक्षा के कोई पुख्ता इंतजाम किए हैं? बिना सुरक्षा की गारंटी के, किसान बीज बोने का जोखिम क्यों उठाएगा?
3. विशेषज्ञों की खेत से दूरी,
बंजर खेत को आबाद करने के लिए किसान को बीज से अधिक तकनीकी मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। विभाग के वैज्ञानिक, विशेषज्ञ और न्यायपंचायत स्तर के कर्मचारी किसानों के साथ उनके खेतों में कितना समय व्यतीत करते हैं? इसका कोई लेखा-जोखा नहीं है। विशेषज्ञों की यह “फील्ड” से दूरी योजनाओं को केवल कार्यालयों तक सीमित कर देती है।
अनिश्चितता
मान भी लिया जाए कि किसान इन सभी बाधाओं से लड़कर फसल उगा लेता है, तो उसके सामने अगली चुनौती मुँह बाए खड़ी होती है। क्या क्षेत्र में विपणन , भण्डारण और कीट-पतंगों से रखरखाव की कोई चाकचौबंद व्यवस्था है? क्या परिवहन सुगम है? या सड़कें बंद होने की स्थिति में, उसे भी उत्तरकाशी के सेव उत्पादकों की तरह अपनी मेहनत को सड़ता हुआ देखने या औने-पौने दामों पर बेचने के लिए विवश होना पड़ेगा?
मंशा या खानापूर्ति?
जब इन सभी बिंदुओं को एक साथ जोड़कर देखा जाता है, तो तस्वीर स्पष्ट हो जाती है। केवल बीज वितरण एक अधूरी और अप्रभावी रणनीति है। यह समस्या के मूल पर प्रहार नहीं करता, बल्कि केवल सतही उपचार का नाटक करता है।
यदि विभाग की मंशा वास्तव में पर्वतीय कृषि को पुनर्जीवित करने की है, तो उसे समग्र दृष्टिकोणअपनाना होगा। इस दृष्टिकोण में जल संरक्षण को प्राथमिकता, वन्यजीवों से सुरक्षा की गारंटी, उन्नत तकनीक का समावेश और फसल-पश्चात प्रबंधन का एक ठोस ढाँचा शामिल होना चाहिए।
यदि लक्ष्य केवल आवंटित बजट को ठिकाने लगाना और फाइलों में लक्ष्य प्राप्त दिखाना है, तो उस स्थिति में विभाग अपनी वर्तमान कार्यप्रणाली में पूर्णतः सफल है। यह निर्णय नीति-निर्माताओं को करना है कि वे बंजर खेतों में हरियाली चाहते हैं या केवल फाइलों में आँकड़े।