राजनीति

संभावनाओं से ही सरकार चुनती है जनता

बगावत झेल रही कांग्रेस और भाजपा के सामने चुनौती

आप भी जमकर ठोंक रही है ताल

हाथी में झूमने को हो रहा है तैयार

देहरादून। सर्दियों के मौसम में पहाड़ पर शीतलहर और मैदान में सुबह-शाम ज्यादा ठंड झेल रहे उत्तराखंड में चुनाव पर चर्चा से माहौल गरमा रहा है। राज्य बनने के बाद उत्तराखंड में विधानसभा का यह पांचवां चुनाव है। दो बार कांग्रेस और दो बार भाजपा बारी-बारी से सत्ता में रह चुके हैं। इस बार दोनों ही सियासी दल बगावत से जूझ रहे हैं। यह चुनाव इस मायने में इसलिए भी महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि इस बार आम आदमी पार्टी (आप) जोर-शोर, तमाम वादों और इरादों के साथ चुनाव में कूदी है। कई बागियों को बसपा अपने हाथी पर सवार कर चुकी है। इस बार के चुनाव में कौन बाजी मार सकता है, इसे समझने के लिए हमें आप, बसपा और कुछ हद तक उक्रांद के प्रभाव को समझना होगा। इससे ही उत्तराखंड में चुनाव की तस्वीर कुछ साफ होती दिखेगी। वैसे मुख्य मुकाबला सत्तारूढ़ भाजपा और विपक्षी दल कांग्रेस के बीच ही है।

उत्तर प्रदेश से अलग होकर नए राज्य उत्तराखंड के पहले चुनाव में बसपा के प्रभाव वाले क्षेत्र भी थे, जहां से सात सीटें मिलीं। अगले चुनाव में बसपा के आठ विधायक उत्तराखंड विधानसभा में पहुंचे। 2012 में बसपा को मात्र तीन और 2017 में एक भी विधायक नहीं मिला। यही हाल, उक्रांद का रहा, जिसने 2002 में चार विधायक जीते थे। 2002 में उक्रांद का वोट प्रतिशत 6.36 फीसदी था, जो  2017 में एक फीसदी पर पहुंच गया। 2017 के चुनाव में वोट प्रतिशत पर गौर करें तो 2012 की तुलना में यहां सिर्फ भाजपा के वोट बैंक (46.51 फीसदी) में ही उछाल देखा गया। 2017 में कांग्रेस (33.49 फीसदी) , बसपा (7.04) और निर्दलीय (10.38 फीसदी) के वोटों में पहले की तुलना में कमी आई। 2017 में कांग्रेस, बसपा, उक्रांद और निर्दलीय को मिलने वालों वोटों का कुछ प्रतिशत भाजपा के खाते में गया था। इससे स्पष्ट है कि जनता ने उसी दल के पक्ष में फैसला सुनाया, जिसके सत्ता पर काबिज होने की संभावना ज्यादा थी। 

यहां मतदान दलीय प्रतिबद्धता के साथ ही सरकार बनने की संभावना के आधार पर भी हुआ। इसलिए बसपा और उक्रांद के मतप्रतिशत में भारी कमी आई। इस बार भाजपा और कांग्रेस दोनों ही बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं। यह चुनौती सत्ता में बरकरार रहने या सत्ता पर काबिज होने की ही नहीं है, यह चुनौती अपने-अपने वोट बैंक को बचाने की भी है। इसके साथ ही दोनों ही सियासी दल को अपने ही दल के बागी प्रत्याशियों से भी सामना करना पड़ रहा है।

पहले बात कांग्रेस की। 2022 के इस चुनाव में कांग्रेस को 2017 के चुनाव में भाजपा द्वारा स्थापित 46.51 फीसदी से अधिक वोटों के माइल स्टोन को पार करना है। इसके लिए उसको 2017 में हासिल अपने वोट बैंक में लगभग 15 फीसदी से अधिक का बड़ा उछाल लाना होगा। वहीं, सरकार से नाराज होने वाले मतदाताओं को अपने पक्ष में करना भी उसके लिए बड़ी चुनौती है, क्योंकि ‘आप’ इन्हीं वोटों पर अपने चुनावी नींव मजबूत कर रही है। वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर भाजपा के लिए होने वाला मतदान भी कांग्रेस की चिंता में शामिल है, क्योंकि 2017 में भाजपा के पक्ष में भारी मतदान मोदी लहर से प्रभावित था।

दूसरी तरफ कांग्रेस के पास सरकार से नाराज एवं मैदानी क्षेत्रों में किसान आंदोलन से प्रभावित मतदाताओं को अपने पक्ष में करने अवसर है। महंगाई भी चुनाव को प्रभावित करेगी। कोरोना संक्रमण के दौर में उत्तराखंड लौटे प्रवासी, जो लोग रोजगार व स्वरोजगार से नहीं जुड़ पाए, उनकी नाराजगी भी कांग्रेस को वोट बैंक के रूप में दिख रही है। वहीं, हर चुनाव में फ्लोट होने वाले वोट पर भी कांग्रेस की निगाह है। पर ये संभावनाएं कितनी हकीकत बनती हैं और कितना फसाना यह समय के गर्त में है।

एक बात और। कांग्रेस ने अपने चुनाव अभियान को शुरुआत में गति दी थी। उसे सत्ता में आने की संभावनाएं दिख रही थी। लिहाजा टिकट को लेकर मारामारी रही। किसी तरह से दो बार में प्रत्याशियों की सूची सामने आई। लेकिन उसको प्रत्याशियों को लेकर पलटे गए फैसलों से ब्रेक लगता रहा। यहां तक कि कांग्रेस के चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष हरीश रावत तक को रामनगर सीट से लालकुआं शिफ्ट होना पड़ा, जबकि रावत रामनगर से अपने नामांकन की तारीख तक घोषित कर चुके थे। डोईवाला, ज्वालापुर, लालकुआं, कालाढूंगी जैसी सीटों पर कांग्रेस ने दो दिन के भीतर अपने प्रत्याशी बदल दिए। कांग्रेस के नेता बगावत करके चुनाव मैदान में कूद पड़े।  

वहीं, भाजपा के सामने 2017 में स्थापित किए गए 46.51 फीसदी वोटों के माइल स्टोन से आगे निकलना बड़ी चुनौती है, वो भी उस स्थिति में जब उसको सरकार से नाराज मतदाताओं को भी अपने पक्ष में रोकना है। किसान आंदोलन से उपजी नाराजगी को थामना है। पूर्ण बहुमत के बाद भी राज्य में मुख्यमंत्रियों को बदलने से विपक्ष को मिले बड़े मुद्दे का सामना करना है। पहले कांग्रेस और अब पूरी ताकत के साथ चुनाव मैदान में खड़ी ‘आप’ से भी वोटों को बचाने की चुनौती है। टिकटों के वितरण से भाजपा में भी बगावत के स्वर उठे हैं। डोईवाला सीट पर पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा पहले ही कर चुके थे। इस सीट पर भाजपा को बगावत झेलनी पड़ रही है और स्थिति यह हो गई कि उसको यहां नामांकन का समय समाप्त होने से कुछ घंटे पहले प्रत्याशी घोषित किया। इस सीट के साथ ही लगभग एक दर्जन सीटों पर भाजपा को बगावत का सामना करना पड़ रहा है। भाजपाई नेता दावा कर रहे हैं कि सभी को मना लिया जाएगा।

मतदाता के पिछले रुझान के अनुसार इस बात की पूरी संभावना है कि उत्तराखंड में ‘आप’ का कुछ सीटों पर तो मुकाबला त्रिकोणीय हो सकता है, पर यह स्थिति संपूर्ण परिदृश्य की नहीं है। साथ ही, भाजपा और कांग्रेस के बीच होने वाले मुकाबले को ‘आप’ प्रभावित करेगी, इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता। ‘आप’ के बारे में यह राय बन रही है कि कई सीटों पर मुकाबला त्रिकोणीय होगा। पर, उत्तराखंड में ‘आप’ के पास यहां यूपी के समय से राजनीति कर रही बसपा जैसा अनुभव नहीं है। ‘आप’ के लिए यहां बसपा एवं उक्रांद की स्थितियों से सबक लेने की आवश्यकता है।  2017 में एक भी सीट न जीतने वाली बसपा ने इस बार मैदानी इलाकों की सीटों पर प्रत्याशी उतारे हैं। इनमें से अधिकांश कांग्रेस और आप के बागी हैं। बसपा को मिलने वाले वोटों का सीधा असर कांग्रेस के प्रत्याशियों पर ही पड़ने वाला है।

राज्य में भाजपा या कांग्रेस में से ही किसी एक की सरकार बनने की संभावना है, क्योंकि इनके विकल्प के रूप में कोई दल उस संगठनात्मक शक्ति एवं रणनीति के साथ यहां जड़े नहीं जमा सका। कांग्रेस ने इस चुनाव के शुरुआती दौर में सत्तारूढ़ दल से खासी बढ़त ले ली थी। लेकिन वक्त गुजरने के साथ ही भाजपा ने दमदार तरीके से वापसी की है। फिर भी कांग्रेस कई सीटों पर अभी भी आगे दिख रही है। अगर कांग्रेस ने फिर से शुरुआती दौर की स्थिति को बहाल करने में सफलता हासिल कर ली तो भाजपा के लिए मुश्किल हो सकती है। एक बात और भी है अगर भाजपा मौजूदा स्थिति पर ही रही और आप के साथ ही बसपा ने अपना जनाधार और बढ़ाया तो इस राज्य को 2007 और 2012 की तरह त्रिशंकु सरकार भी देखनी पड़ सकती है।

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