उत्तराखंड

पहाड़ के विकास पर एक्टिविस्ट रतन सिंह असवाल की खरी खरी

मुगालता था हमें कि राहें आसान हो रही हैं !

पहाड़ के विकास पर एक्टिविस्ट रतन सिंह असवाल की खरी खरी

उत्तराखंड।

कितनी मासूमियत से हमने सोचा था कि जब पहाड़ पर चौड़ी सड़कें आएँगी, तो उन पर चलकर डॉक्टर गाँव तक पहुँचेंगे, अच्छे मास्टर जी स्कूल आएँगे, और बीमार को डोली में नहीं ले जाना पड़ेगा। लेकिन विडंबना देखिए। सड़कें तो बनीं, क्या शानदार बनीं। पहाड़ में ऑल वेदर रोड तैयार हो गईं। मगर उन सड़कों पर डॉक्टर और मास्टर जी से पहले प्रॉपर्टी डीलर और भू-माफिया अपनी SUV दौड़ाते हुए पहुँच गए।

हम खुश थे कि दिल्ली अब दूर नहीं, हम 6 घंटे में घर पहुँच सकते हैं। लेकिन हमें यह अंदाज़ा नहीं था कि उसी 6 घंटे की रफ़्तार से बाहरी पूँजीपति भी हमारे आँगन तक पहुँच जाएगा।

जैसे-जैसे रास्ते चौड़े हुए, हमारी सांस्कृतिक जड़ें उतनी ही संकरी होती गईं। पहले पहाड़ चढ़ना मुश्किल था, शायद इसीलिए बाहरी लोग डरते थे और हमारी जमीनें सुरक्षित थीं। अब सुगमता ही हमारे अस्तित्व के लिए आपदा बन गई है।

गाँव के जिस खेत में दादा हल चलाते थे, जिसे हम बंजर समझकर छोड़ आए थे, आज उसे इंटरनेट पर Hill View Plot for Sale बताकर करोड़ों में बेचा जा रहा है। प्रवासी भाई लोग शहर में 50 गज के फ्लैट की EMI भरते-भरते बूढ़े हो रहे हैं, और यहाँ उनकी पुश्तैनी ठौर पर कोई बाहरी व्यक्ति रिसॉर्ट बनाकर उसे Peaceful Mountain Stay के नाम पर विदेशियों को बेच रहा है। विडंबना तो देखिए, उसी रिसॉर्ट में नौकरी करने वाला वेटर शायद उसी गाँव का कोई लड़का है, जो अपनी ही ज़मीन पर अब नौकर है।

हैलो प्रवासी भाइयों,

पधारो अपने देश जल्दी…

यह सिर्फ एक बुलावा नहीं, एक इमरजेंसी सायरन है।अगर आप सोच रहे हैं कि रिटायरमेंट के बाद पहाड़ लौटेंगे और सुकून से रहेंगे, तो जनाब, भूल जाइए। तब तक आपके डांडा-कांठा और पंदेरा सब प्राइवेट प्रॉपर्टी बन चुके होंगे। जिस व्यू पर आपको नाज़ है, उसके आगे किसी ऊँची दीवार ने पर्दा डाल दिया होगा। आपकी जायदाद पर नज़रें गड़ चुकी हैं। वो नाप-जोख रहे हैं, बस आपके एक दस्तखत का इंतज़ार है।

विकास चाहिए, सड़कें चाहिए, रेल भी चाहिए.. लेकिन अगर इसकी कीमत हमारी पहचान, हमारी जनसांख्यिकी (Demography) और हमारी मिट्टी है, तो यह सौदा बहुत महंगा है। यह समय मुगालते से बाहर निकलने का है। इससे पहले कि पहाड़ केवल पर्यटन स्थल बनकर रह जाए और हम अपने ही घर के पर्यटक बनकर रह जाएँ, अपनी जड़ों को पकड़ लीजिए।

ध्यान रहे, सड़कें तो वहीं रहेंगी पर उन पर चलने वाले लोग बदल जाएँगे।

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