चिंता का विषय बना घटता लिंगानुपात
हमेशा से ही उत्तराखंड की रीढ़ रही है मातृ शक्ति
राज्य में हजार पुरुषों पर 840 महिलाएं ही
इस मामले में तो अंतिम पायदान पर है राज्य
रतन सिंह असवाल
देहरादून। नीति आयोग के ताजा आंकड़े बता रहे हैं कि पर्वतीय राज्य उत्तराखंड में बच्चों के लिंगानुपात के मामले में देश के अन्य राज्यों से बहुत पीछे हैं। आयोग के अनुसार उत्तराखंड में प्रति एक हजार पुरुष के मुकाबले महज 840 महिलाएं ही है। यह बहुत चिंता का विषय है। यह इस लिहाज से भी गंभारी है कि पर्वतीय अंचल में महिलाओं को रीड़ माना जाता है और आगे भी माना जाता रहेगा। ऐसे में सरकार को इसे गंभीरता से लेकर लिंगानुपात की समानता के लिए बड़े और प्रभावी कदम उठाने चाहिए।
नीति आयोग के सर्वे SDG (सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स) के आंकड़े बेस मूल्यांकनों के परिणाम के साथ साझा किए हैं। सर्वे के अनुसार राज्य में बच्चों के लिंगानुपात में भारी गिरावट के मामले में देश के निम्नतम स्तर पर हैं। यह महत्वपूर्ण और संवेदनशील घटना समाचार पत्रों और न्यूज पोर्टलों की सुर्खियां नहीं बन सकी।
आंकड़ों पर यदि नजर डालें तो स्थितियां कितनी भयाभय होती जा रही हैं, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। लिंगानुपात के राष्ट्रीय औसत की बात करें तो हजार पुरुषों के मुकाबिल 899 महिलाएं हैं। वहीं उत्तराखंड में हजार पुरुषों के मुकाबिल मात्र 840 महिलाएं ही हैं।
वर्ष 2005 के राष्ट्रीय परिवार सर्वेक्षण कार्यक्रम के सर्वे के अनुसार उत्तराखंड में एक हजार पुरूषों के अनुपात में 888 महिलाएं थी। 2018 में यह संख्या घटकर 850 रह गई। और इस वर्ष यह और घटकर 840 हो गई। इस आंकड़े के साथ लिंगानुपात में भारी अंतर के साथ उत्तराखंड देश के सभी राज्यों में सबसे खराब अंकन के साथ आखरी स्थान पर खड़ा हो गया ।
लिंगानुपात के संतुलन में पंजाब और हरियाणा ने विगत एक दशक में बेहतरीन उदाहरण दिया है। हालांकि उसके इस प्रदर्शन में परोक्ष और अपरोक्ष रूप में पर्वतीय राज्यों का बड़ा योगदान माना जाता है। आयोग के सर्वे के अनुसार पंजाब और हरियाणा में लिंगानुपात का संतुलन काफी संतोशजनक है। इन राज्यों में एक हजार पुरूषों के सापेक्ष 930 महिलाएं हैं।
राज्य के दो दशकों के आंकड़ों पर यदि नजर डालें तो पहाड़ के जनपदों में लिंगानुपात में अंतर बढ़ता जा रहा है। हमारे घुम्मकड़ी अनुभव और सर्वेक्षण के अनुसार इसकी सबसे बड़ी वजह वैवाहिक पलायन है। समय रहते इस ओर समाज और सरकार को ध्यान देना होगा। जब जननी ही पहाड़ में नही रहेगी तो जनेगा कौन? यह यक्ष प्रशन हमारे सामने खड़ा है और इसका दूरगामी समाधान सामाजिक संगठनों, विशेषज्ञ विभागों और जनप्रतिनिधियों को खोजना होगा। बाद बाक़ी यह कहना इसलिए भी मुश्किल है कि बालिकाएं अपनी बात किसी भी मंच पर पंहुचाने में असहाय इसलिए भी हैं कि वे नीति नियंताओ और विशेषज्ञ विभागों की प्राथमिकता में शायद ही कभी रही हों।