ब्यूरोक्रेसी

वनाग्नि: क्यों न जिम्मेदार अफसरों के घरों पर चले बुलडोजर

देवभूमि में बेकाबू होती जंगल की आग

पत्रकार अजय अजेय रावत की खरी-खरी

 पहली बात। यदि कोई भोला-भाला ग्रामीण चारे की खातिर किसी पेड़ से एक टहनी तक काट ले तो जंगलों के ‘सरकारी चौकीदार’ अंग्रेज़ अफसरों की तरह कानून का डंडा चलाने में तनिक भी देर नहीं करते। किसी गांव को जा रही सड़क की राह में एक अदद पेड़ भी आ जाए तो ग्रामीणों की सहूलियतों को इस पेड़ पर कुर्बान कर दिया जाता है। 

 दूसरी बात। जंगलात महकमे के अफसरान तो वर्ष भर ब्रिटिशकालीन अंग्रेज अफसरों की भांति रौबदार ऐश्वर्य पूर्ण जिंदगी बसर करते हैं। वहीं कर्मचारी भी अप्रैल से जून माह तक ही कुछ तनाव में रहते हैं। शेष नौ महीने वह भी समय व्यतीत कर पगार छकते, या फिर वनीकरण, कैम्पा, जायका जैसी योजनाओं  का ज़ायका लेते। यानी कि जंगल राज की भांति जंगलात महकमे में योजनाओं पर खर्च होने वाले बजट का कोई पुरसाहाल नहीं है। असीमित भ्रष्टाचार वाले इस विभाग के कारनामों के प्रति पब्लिक डोमेन में खास चर्चा न होने का आनंद इस महकमे के सभी कर्मी व अफसर बदस्तूर लेते रहे हैं

तीसरी और सबसे अहम बात। जब जंगल का पूरा हक जंगलात महकमे को है तो क्यों नहीं तमाम जिम्मेदारियां भी इसी महकमे के अफसरों के कांधे डाली जानी चाहिए। दावानल की हर घटना के लिए संबंधित अरण्यपाल को जिम्मेदार माना जाना चाहिए। अभी कोई आग की घटना हो तो  भले छोटे कर्मचारी वनाग्नि पर काबू पाने भले कुछ मशक्कत करते हों, लेकिन क्षेत्राधिकारी से ऊपर के तमाम अधिकारी अपने आलीशान बंगलों में बैठकर शाम रंगीन करते करते फोन पर जानकारी लेकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री करते हैं। 

 गर जंगलों को बचाना है तो इस महकमे के अफसरों पर सीधे रिस्पांसिबिलिटी फिक्स किया जाना अनिवार्य है। साथ ही अनाप शनाप तरीके से जुटाई गई इनकी संपत्तियों पर बुलडोजर के साये का खौफ़ तारी करना भी निहायत ही जरूरी हो गया है। वरना वनाग्नि तो इनके लिए साल दर साल ऐश्वर्यवर्धन के नए अवसर बनती रहेगी। 

संज्ञानार्थ: 

Subodh Uniyal 

Pushkar Singh Dhami

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