राजनीति

दलितों को रिझाने की कोशिश में सियासी दल

योगेश राणा

उत्तराखंड में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की हल्द्वानी से जारी की गई एक तस्वीर के बाद यह बहस शुरू हो गई है कि उत्तराखंड में दलितों को लेकर किसकी राजनीति कितनी खरी है? और कौन कितना सफल होता दिख रहा है? इसको लेकर राजनीतिक विश्वलेषक अपने अपने मायने निक लेकिन आज हम कुछ तथ्यों और घटनाओं के आधार पर इसकी पड़ताल कर लेते हैं।

मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी हल्द्वानी में कार्यक्रम में शामिल होने के बाद एक दलित परिवार के घर पहुंचे। नंद किशोर पार्टी के कार्यकर्ता हैं। पुष्कर सिंह धामी ने नंदकिशोर के घर पर भोजन किया। उन्होंने लौकी की सब्जी, रोटी, चावल और खीर खाई। इस तस्वीर ने एक बार फिर इस सवाल का जन्म दे दिया कि उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी और हरीश रावत में से कौन दलित वोटर को साधने में कामयाब होते दिख रहे हैं।

आगे बढ़ने से पहले उत्तराखंड में दलित मतदाताओं का गणित समझ लें।

उत्तराखंड में 16 फीसदी दलित वोटर हैं, प्रदेश की 12 सीटें इस वर्ग के लिए आरक्षित हैं। कुल 22 सीटों पर दलित वोटर हार-जीत में अहम भूमिका निभाते हैं, इसलिए सूबे में दलित वोटर को साधने के लिए तरह- आपको याद होगा हरीश रावत ने भी हरिद्वार में मां गंगा से प्रदेश में दलित मुख्यमंत्री बनने की अपनी इच्छा का इजहार किया था।

पहले कांग्रेस की बात करते हैं.हरीश रावत ने जब दलित को मुख्यमंत्री बनने की इच्छा जाहिर की तो यह माना गया कि वो प्रदीप टम्टा का नाम आगे बढ़ा रहे हैं, हालांकि उन्होंने किसी का नाम नहीं लिया था।

हरीश रावत की इच्छा में प्रदीप टम्टा का नाम आगे बढ़ाने का मतलब इसलिए निकाला गया, क्योंकि उस समय यशपाल आर्य के कांग्रेस में शामिल होने की बात चल रही थी।

यशपाल की घर वापसी के प्रयास में प्रीतम सिंह लगे हुए थे, इसलिए यह माना गया कि हरीश रावत यह मैसेज दे रहे हैं कि यशपाल आ भी गए तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि हमारे पास प्रदीप टम्टा हैं और वह मेरे करीबी हैं।

हरीश रावत ने उस समय दलित को मुख्यमंत्री बनाने की बात इसलिए कही, ताकि यशपाल आर्य तक यह मैसेज पहुंचे कि कांग्रेस में आने पर उनका कुछ नहीं होगा, क्योंकि हरीश रावत तो प्रदीप टम्टा को ही आगे बढ़ाएंगे। लेकिन इसके बाद भी प्रीतम सिंह यशपाल आर्य को कांग्रेस में लाने में सफल रहे।

यानि कह सकते हैं कि हरीश रावत का दलित को मुख्यमंत्री बनाने की बात कहना उस समय की एक विशेष सिचुएशन को देखते हुए एक रणनीति थी। वो उस समय के घटनाक्रम को प्रभावित करना चाह रहे थे, लेकिन घटनाक्रम नहीं रुका और यशपाल आर्य कांग्रेस में आ गए।

यशपाल आर्य के कांग्रेस में आते ही हरीश रावत के बयान का यह मतलब निकाला जाने लगा कि हरीश रावत जिस दलित चेहरे की बात कर रहे थे वो यशपाल ही थे। वो यशपाल को ही मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट कर रहे थे, जबकि ऐसा नहीं था।

इससे हरीश रावत अपने ही बयान में फंस गए और उनको खुद के मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा प्रभावित होती दिखने लगी।

इसलिए उन्होंने बाबा केदारनाथ के दरबार में जाकर कहा कि मैं मुख्यमंत्री बनना चाहता हूं। हरीश रावत की नई इच्छा से उनके समर्थकों में यह संदेश तो चला गया कि हरीश रावत की मुख्यमंत्री बनने की इच्छा जाग्रत है।

वो किसी और के सिर पर नहीं, खुद ही सेहरा बांधेंगे, ऐसी उनकी इच्छा है अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो। लेकिन, उनके नए बयान से नुकसान यह हो गया कि उत्तराखंड के दलित वर्ग में यह संदेश चला गया कि हरीश रावत दलित विरोधी हैं, वो नहीं चाहते कि कोई दलित नेता आगे बढ़े। कांग्रेस हरीश रावत के कारण मुश्किल में आती दिखी तो इसका हल खोजा गया।

और हल यह निकला कि हरीश रावत के खुद को मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करने से जो नुकसान हुआ है उसको हल्द्वानी में यशपाल आर्य के भव्य स्वागत समारोह से कम किया जाए। आप ही सोचिए, जब यशपाल आर्य का देहरादून में भव्य स्वागत हो चुका था तो फिर हल्द्वानी में पूरी जनसभा उनके नाम पर करने की क्या जरूरत आन पड़ी थी? ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस ने यशपाल आर्य को मुख्यमंत्री पद के दावेदार के तौर पर पेश किया हुआ है। इसके पीछे एक ही कारण रहा और वो हरीश रावत की पल पल बदलती बयानबाजी के कारण कांग्रेस को हो रहा नुकसान।

इस पूरे प्रकरण से यह तो समझा जा सकता है कि हरीश रावत दलित वर्ग के लिए राजनीति को लेकर कितने संजीदा हैं। वो उत्तराखंड में व्यक्ति आधारित राजनीति को आगे बढ़ा दे रहे हैं और उसके केंद्र में वो खुद को रखे हुए हैं। भाजपा दलित वर्ग को साधने के लिए क्या कर रही है। यह इस बात से चर्चा में आया जब पुष्कर सिंह धामी ने दलित परिवार के घर पर खाना खाया। इसमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए नंदकिशोर भाजपा के कार्यकर्ता हैं। इसके साथ ही इस बात पर गौर किया जाना चाहिए भाजपा ने अभी प्रदेश की सभी 70 सीटों पर जातीय समीकरणों के हिसाब से रणनीति बनाई और उसी के हिसाब से जिम्मेदारी बांटी है। जिन विधानसभा सीटों पर जिस जाति या वर्ग की बाहुल्यता है वहां पर उसी वर्ग के नेता को जिम्मेदारी दी गई है।

हम यहां पर दलित वर्ग की बात कर रहे हैं, इसलिए जान लें ओबीसी वर्ग की अधिकता वाली सीटों पर उत्तराखंड के प्रभारी दुष्यंत गौतम को हरिद्वार – देहरादून और सह प्रभारी रेखा वर्मा को टिहरी और उत्तरकाशी में महिला और ओबीसी मतदाताओं को साधने का काम सौंपा गया है। इस तरह से कह सकते हैं कि बीजेपी बहुत ही कैलकुलेटिव तरीके से हर वर्ग को साधने की कोशिश में लगी हुई है जबकि कांग्रेस केवल हरीश रावत के बयानों और इच्छाओं के भरोसे चलती दिख रही है। भाजपा और कांग्रेस अपनी अपनी कोशिश में कितनी सफल होंगे, यह तो अभी नहीं कहा जा सकता है. इसके लिए तो चुनाव परिणाम का इंतजार ही करना होगा।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं। 

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