न्याय हित में नहीं पिता का संतान के विभाग का मुखिया होना
मंत्री पिता को बदलवाना चाहिए विभाग !
ऐसा न होने पर प्राकृतिक न्याय सिद्धांत का संरक्षण कठिन
न्याय होता हुआ प्रतीत होना भी नहीं हो सकता है संभव
नदीम उद्दीन
काशीपुर। उत्तराखंड के एक प्रमुख विभाग के विभागीय मंत्री की संतान के उसी विभाग में राजपत्रित अधिकारी होने से कानूनी प्रश्न खड़ा हो गया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा विभागीय निर्णयों में स्पष्ट प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के अनुसार कोई भी अधिकारी अपने से संबंधित या अपनी संतान से संबंधित मामले में निर्णय नहीं कर सकता है।
राजपत्रित अधिकारियों के सेवा सम्बन्धी मामले में उत्तराखंड में लागू सचिवालय अनुदेश 1982 के नियमों के अनुसार अंतिम निर्णय विभागीय मंत्री ही करते हैं। ऐसे में अपनी संतान की अधिकारी के रूप में प्रोन्नति, दंड सम्बन्धी निर्णय भी उन्हीं को लेना पड़ेगा जो प्राकृतिक न्याय सिद्धांत का उल्लंघन होगा। ऐसी स्थिति में दोनों में से एक को अपना पद छोड़ना आवश्यक है। प्रतिनियुक्ति पर भी मूल विभाग का ही नियंत्रण रहता है। इसलिये संतान अधिकारी के किसी अन्य विभाग में प्रतिनियुक्ति पर जाने से भी यह संकट हल नहीं होगा। इसके लिये आसान यही होगा कि मुख्यमंत्री से कहकर मंत्री अपना विभाग बदलवा लें। अगर ऐसा वह न करना चाहे तो संबंधित विभाग की सेवा से इस्तीफा देकर दुबारा नियुक्ति प्रक्रिया में जाकर संबंधित संतान को किसी अन्य विभाग या सरकार में सेवा प्रारंभ करनी चाहिए।
इसके अतिरिक्त विभागीय मंत्री को प्र्रसन्न करने के लिये किसी अधिकारी द्वारा संबंधित संतान अधिकारी के साथ कोई विशेष व्यवहार या अन्य अधिकारियों से असमान व्यवहार किया जाता है तो यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत गारंटीकृत समानता के मूल अधिकार या उल्लंघन होगा। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि कर्मचारी आचरण नियमावली के अन्तर्गत प्रत्येक अधिकारी सबके साथ समान व्यवहार करने तथा उच्च अधिकारियों के वैध आदेशों का पालन करने को बाध्य है। ऐसा न करना कदाचार है,जिसके लिये सेवा सम्बन्धी नियमों के अन्तर्गत संबंधित अधिकारी के विरूद्ध कभी भी कार्यवाही की जा सकती है।
विभागीय मंत्री की संतान के उसी विभाग में अधिकारी होने से कर्मचारी आचरण नियमावली के प्रावधानों में सेवा सम्बन्धी मामलों में सिफारिश पर प्रतिबंध के नियम के बावजूद संतान के माध्यम से मंत्रीजी से सिफारिश कराने के मामले में भारी बढ़ोत्तरी की संभावनायें रहेगी जिससे विभागीय कार्य व अनुशासन प्र्रभावित होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।
यहां यह बताना भी सुसंगत होेगा कि मंत्री संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार ईश्वर की शपथ लेकर संविधान के अनुसार बिना राग द्वेष के निष्पक्ष होकर अपने कर्तव्यों का पालन करने की शपथ लेकर पद भार ग्र्रहण करते है। संतान के संबंधित विभाग में अधिकारी होने से इस शपथ के टूटने की संभावनाएं भी रहेगी। इसके अतिरिक्त किसी भी अधिकारी के विरूद्ध मंत्री जी द्वारा निर्णय करने पर वह संतान अधिकारी के साथ असमान या विशेष अधिकार का आरोप लगाते हुए वह आदेश को लोक सेवा अधिकरण तथा उच्च न्यायालय में चुनौती देगा जिससे अनावश्यक रूप से सरकार पर मुकदमेबाजी का बोझ बढ़ेगा औैर ऐसे आदेशों का क्रियान्वयन भी कठिन हो जाएगा।
लेखक उच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं