ये दावे हैं झूठे और आंकड़े सब किताबी
हिमालय बचाओ अभियान का यह है कड़वा सच
अखिलेश डिमरी
आज हिमालय दिवस भी है। वही हिमालय जिसके बचाने के नाम पर हम साल दर साल कसम खा कर कम से कम इतना तो सिद्ध कर ही रहे हैं कि हम हिमालय के मोर्चे पर हर बार निकम्मे ही साबित हुए। आज हिमालय व्यवसायिक हो गया है। इस हिमालय पर बोलना, हिमालय को समझना और समझाना सबका सब व्यावसायिक ही हो गया है। अगर सब कुछ हिमालय के निमित्त होता तो कूड़े के ढेर सा हिमालय न दिख रहा होता। समस्या जीरो टॉलरेंस जीरो टॉलरेंस बोलने में नहीं उसे आत्मसात करने में है।सत्ताओं की करनी और कथनी के अंतर के प्रति सचेत रहिए।
हालांकि फंड की जुगाड़ के लिए बोला जा रहा हिमालय आज भी अडिग खड़ा है। वो हिमालय जिसने कायनात को बचाने का प्रण लिया हो। उसे महज भाषणों से बचाने का दुस्साहस भी कम ही लोग कर पाते हैं। लेकिन इतिहास जब भी लिखा जाएगा तब तब अटल हिमालय की विशालता के सामने इन अदने से मानवों का दुस्साहस भी सोचनीय ही होगा।
ध्यान रखिए। भाषण देने और भाषणों में बोली गई बातों पर खुद ही अमल करने में बहुत फर्क है। ये फर्क वैसा ही है जैसे हम दो कौड़ी के लोगों को भाग्यविधाता समझने को आतुर रहते हैं। ये अंतर वैसा ही है जैसे पर्वत पुत्र, हिमालय पुत्र, धरती पुत्र, विकास पुत्र, गंगा पुत्र, आदि आदि के संबोधनों के बावजूद धरती, पर्वत, गंगा और हिमालय सबके सब बेहाल हैं।
तय मानिये कि बेहतर सिस्टम बेहतर लोग ही बनाते हैं और यदि सत्ताएं बेहतर लोगों के बजाय तिकड़मबाज और भ्रष्ट लोगों के आगे लगातार घुटने टेकती नजर आ रही हो तो यकीन मानिए कि सत्ता बेहतर सिस्टम बनाना ही नहीं चाहती और वो अपने भाषणों में महज अच्छे पारदर्शी सिस्टम का दिखावा कर रही है।
यह भी तय मानिए कि जब सत्ताएं और उसके अन्य प्रकल्प व चिर प्रतिद्वंद्वी विकास पर बहस के बजाय मंदिर मस्जिद, धार्मिक यात्राएं जनता के सामने रखने लगते हैं तो व्यवस्थाओं के बड़ा छेद हो गया है और उस छेद के ये सबके सब सहकार हैं।
तय मानिए कि जब सत्ताएं अपने अदने से कारिंदों की मनमानी सर माथे लगा कर स्वीकार कर रही हो तो वो मानसिक रूप से हताश और बीमार हो चुकी है और आप मजबूर है इस बीमार व्यवस्था को स्वीकारने के लिए।
जम्हूरियत में व्यवस्थाएं लीडरान के इकबाल से बुलंद हुआ करती हैं और ये तय करना कि कौन सा लीडर इकबाल बुलंद कर पाएगा आवाम की ही जिम्मेदारी है। अफसोस कि हर बार आवाम इस मोर्चे पर विफल ही हुई है। हम सब अपने अपने लिए इन्हें स्वीकार करते हैं अपने हिसाब से महज अपने लिए।
यकीन रखिए कि हिमालय के लिए जो एक दिवस की जरूरत पैदा कर देते हैं वो ही अक्सर हिमालय के सरोकारों से दूर होते हैं। हिमालय पहले भी अडिग था आगे भी अडिग ही रहेगा और उसकी इस अडिगता मे सबसे बड़ा योगदान हिमालय के रैबासी ही देते रहे हैं और आगे भी देते रहेंगे।
याद रखिए गाय के गौमाता घोषित हो जाने का हासिल यह कि आपको गोवंश सड़क पर झुंड में आवारा घूमता हुआ दिख जाएगा। नमामि गंगे के बावजूद गंगा पर चिंताएं जस की तस हैं। ठीक वैसे ही हिमालय पर भी सरोकार पुरुषों का होना है। ये वही हिमालय है जिसकी छाती पर किसी व्यापारी के पुत्र की शादी के शामियाने तान दिए गए और सारे सरोकारी पुरुष शांत रहे। मानिए कि हिमालय के लिए भी हमारी चिंताएं दोयम दर्जे की ही हैं और शायद आगे भी दोयम दर्जे की ही रहेंगी।
आखिर में अदम साहब का लिखा एक शेर अपनी नजर।
तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है।
ये दावे हैं मगर झूठे, आंकड़े सब किताबी हैं।