गेहूं की आत्मकथा
राजीव सिंघल
उस रात, मैं धरती से बाहर आया था। हां भाई हां, उसे धरती से बाहर आना नहीं कहते, अंकुरित होना बोलते हैं, अब ठीक कहा न मैंने। वो उजाले वाली रात थी। उस रात कुछ भी तो नहीं देख पाया था। दिन में सूरज की रोशनी में आंखें ढंग से नहीं खुल पा रही थीं। इसी तरह एक-दो दिन बीत गए। अब मुझे कुछ दिखाई देने लगा है। अरे, यह मैं क्या देख रहा हूं, इतना बड़ा मैदान वो भी दूर दूर तक हराभरा, अचानक ही मन ही मन बोल उठा। हम छोटे छोटे पौधों ने उस मैदान को हरियाली की चादर ओढ़ा दी थी। वाह, मैं खुद से कह रहा था, कितनी खूबसूरत है यह दुनिया।
माफ करना, मैं तो अपना नाम बताना ही भूल गया। मेरा नाम है गेहूं। अच्छा तो, आगे की बात सुनिये, एक रात पता चला कि प्रकृति हम से मिलना चाहती हैं। मैं सोच में पड़ गया कि क्या हम इतने खास हैं कि प्रकृति यहां आकर हमसे मिलेंगी। यह तो मैं जानता हूं कि प्रकृति ने हमें यहां अंकुरित किया है। पर यह नहीं पता था हम उनके लिए बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। प्रकृति से मुलाकात की रात भी आ ही गई।
उस उजाले वाली रात, प्रकृति ने हम से खूब बातें कीं और अपना संदेश भी दिया। उन्होंने कहा कि आप सब विशेष हो, क्योंकि आप अपने लिए नहीं दूसरों के लिए जीने आए हो। दूसरों के लिए जीने वाले ही खास होते हैं, अपने लिए तो सब जीते हैं। अवसर मिला तो मैंने प्रकृति से पूछ ही लिया, दूसरों के लिए जीना है, मैं समझा नहीं। हम यहां एक जगह खड़े रहकर दूसरों के लिए कैसे जी सकते हैं। ज्यादा से ज्यादा यह हो सकता है कि हमें देखकर कोई खुश हो जाए, कोई मुस्कराभर जाए या कोई यह कह दे, यही तो मैं देखना चाहता था। मन की शांति के लिए कोई हमें निहारभर ले, यही हो सकता है। इतने भर से जीवन सार्थक नहीं हो सकता। एक दिन अपनी उम्र पूरी करके हम यहीं मिट्टी में मिल जाएंगे। न हमें कुछ मिलेगा और न ही किसी दूसरे को।
प्रकृति ने कहा, आपको वक्त के साथ अहसास होगा कि इन सबसे अलग भी आप बहुत कुछ हो, क्योंकि आपका एक-एक कण महत्वपूर्ण है। जब तक धरती है, आप विराजमान रहोगे। मैं प्रकृति से संवाद के बाद भी नहीं समझ पाया कि दूसरों के काम कैसे आऊंगा। अब मुझे उस वक्त का इंतजार था, जो मुझे कुछ बताएगा भी और सिखाएगा भी। धीरे-धीरे मैं बड़ा होता गया। जमीन से कुछ ऊपर उठकर पूरी दुनिया को देखने की कोशिश शुरू हो गई। कुछ समय बाद, मेरा रंग हरा नहीं था, मैं कुछ अलग दिखने लगा। मैदान में बिछी चादर का रंग गेहुंआ हो गया। जब कोई मुझे देखकर कहता कि धरती सोना उगल रही है तो मन इतना खुश होता कि बता नहीं सकता। मेरे पास तो शब्द ही नहीं हैं।
यहां पहली बार अनुभव हुआ कि हम अमूल्य हैं। मुझे पता है कि इंसान खुद की शोभा बढ़ाने के लिए सोना पहनते हैं। यहां तो मैं धरती की शोभा हूं।तारीफ बहुत हो गई, अब कुछ कर गुजरने के लिए तैयार हो जाओ। अब तुम यहां ज्यादा दिन खड़े नहीं रह सकते। बहुत देख ली दुनिया, मुझे ऐसे शब्द सुनाई दे रहे थे। एक दिन हमें जड़ से थोड़ा ऊपर दरांतियों से काटा जाने लगा। बड़ा दर्द हो रहा था। जीवन में कुछ खास करना है तो कष्ट भी झेलना पड़ेगा, तन का भी और मन का भी। हम सभी को काटकर एक जगह डाल दिया गया। एक के ऊपर एक, सबको एक जगह फेंक दिया गया। सब दर्द के मारे कराह रहे थे, पर उतना ही कि किसी को पता नहीं चल रहा था। अगर हम चीखते, चिल्लाते, शोर मचाते तो फिर हमारे जीवन का उद्देश्य ही खत्म हो जाता।
हमें उसी धरा पर इकट्ठा करके कूटा जाने लगा। हां, उसी धरती पर, जिससे मैं अंकुरित हुआ था। कूटे जाने का मतलब तो आप जानते ही हो। एक बार तो लगा कि कटे पैरों से ही दौड़कर दूर चले जाओ, बहुत दूर…। दर्द असहनीय था, क्योंकि शरीर से उसकी ऊर्जा को अलग किया जा रहा था। आप ही बताओ, बिना ऊर्जा के तो शरीर मृत हो जाएगा न। पर, मैंने धैर्य नहीं खोया, क्योंकि प्रकृति ने कहा था, तुम्हें दूसरों के लिए जीना है। यहां मुझे अनुभव हो गया कि दूसरों के लिए जीना है तो यह सब सहना होगा।
मैंने हार नहीं मानी और अपनी आत्मा को जीवित रखा, ताकि उसकी ऊर्जा किसी के काम आ सके। देखो, मेरा निर्जीव शरीर भी ऊर्जावान है, क्योंकि मैंने स्वयं में कभी निराशा का भाव पनपने ही नहीं दिया था। अब मेरा कण-कण एक जगह इकट्ठा हो गया। मेरे कण तो अभी भी स्वर्ण जैसे चमकदार हैं। मुझे प्रकृति की वो बात याद आ गई, जिसमें उन्होंने कहा था कि मुश्किलों में भी अपने गुणों को बनाए रखने वाले ही विशेष होते है। अब लगा कि मैं विशेष हूं। अभी मुश्किलों का दौर खत्म नहीं हुआ। मुझे पत्थरों की चक्की में पिसने के लिए डाल दिया गया। मैं कुचला जा रहा था। यहां एक बार तो मेरा सब्र टूट गया। झूठ नहीं बोलूंगा, मैं बहुत तेज चिल्लाया था, कहां फंसा दिया मुझे, अरे कोई मुझे बाहर निकालो यहां से। बहुत दर्द हो रहा है। मैं एक बार यह सोचकर चुप हो गया था कि ऐसा करके मेरे जीवन का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। वो दिन और आज, मैं चक्की में मौन होकर गेहूं से आटा बन जाता हूं, उफ तक नहीं करता।
मेरा रूप, रंग बदल गया, फिर भी परीक्षा का सिलसिला चलता रहा। अब मुझे जल में भिगोकर गूंथा जाने लगा। बीच बीच में मुझे थपकियां दी जा रही हैं। मैं इन थपकियों को शाबासी मानूं या फिर गूंथने वाले का गुस्सा, अभी तक नहीं समझ पाया। मुझे मालूम था कि अभी मुझ पर और ताकत आजमाई जाएगी। अब कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था, क्योंकि बड़े कष्टों को झेल चुका था, वो भी किसी से शिकायत किए बिना। मैं अपनी पूरी ऊर्जा के साथ एक बर्तन में सिमटा पड़ा था। स्वरूप ही तो बदला है, गुण तो वही हैं, जो प्रकृति ने परोपकार के लिए दिए हैं।
मुझे फिर टुकड़ों में तोड़ दिया गया। अब मेरा आकार बदल रहा है पर आकृति में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है। मैं गेहूं से आटे में बदल गया, पर अंतिम दम तक अपने स्वरूप पर ही टिका हूं। मुझे कभी तेज आंच पर सेंका जा रहा है तो कभी सीधा आग के हवाले ही किया जा रहा है। मैं फूल कर फिर वैसा ही बन रहा हूं, जैसा था… वही गेहूं की तरह गोल। मुझे दांतों से चबाकर मेरी ऊर्जा को लिया जा रहा है। यह ऊर्जा फिर से मेरे ही तो काम आएगी, मुझे फिर धरती पर अंकुरित करने के। क्या अब भी मैं कहूंगा कि मेरा जीवन किसी काम का नहीं। शायद, मैं यह गलती दोबारा नहीं करूंगा।