आपदा प्रबंधन की बहस: दिखास-छपास से परे, विशेषज्ञों को कब मिलेगी जगह ? -रतन सिंह असवाल

आपदा प्रबंधन की बहस
दिखास-छपास से परे,
विशेषज्ञों को कब मिलेगी जगह ?
रतन सिंह असवाल
उत्तर भारत के आपदा प्रभावित क्षेत्र, विशेषकर हिमालयी राज्य, हर साल प्रकृति के प्रकोप का सामना करते हैं। भूस्खलन, बाढ़ और भूकंप की बढ़ती घटनाओं के बीच यह एक गंभीर चिंता का विषय है कि इन आपदाओं पर होने वाली सार्वजनिक बहसों और नीतिगत चर्चाओं का नेतृत्व कौन कर रहा है। अक्सर टीवी स्क्रीन और अखबारों के पन्नों पर हमें कुछ गिने-चुने राजनीतिक चेहरे, सामाजिक कार्यकर्ता या स्थानीय नेता ही दिखते हैं। इस कोलाहल में वे आवाजें दब जाती हैं, जिन्हें सबसे अधिक सुना जाना चाहिए—हमारे वैज्ञानिकों और तकनीकी विशेषज्ञों की।
यह एक कड़वा सच है कि आपदा जैसे अति-संवेदनशील मुद्दे पर भी क्षेत्रीय राजनीति, विचारधारा और मीडिया की “दिखाने-छापने” की अपनी प्राथमिकताएं हावी हो जाती हैं। आईआईटी (IITs), वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी (Wadia Institute of Himalayan Geology), भारतीय सुदूर संवेदन संस्थान (IIRS), और भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI) जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों के नामचीन वैज्ञानिक, जो दशकों से हिमालय की नाजुक पारिस्थितिकी का अध्ययन कर रहे हैं, इन बहसों से लगभग नदारद रहते हैं।
इसके कई कारण हैं। मीडिया अक्सर सनसनी और भावनात्मक अपील को प्राथमिकता देता है, जबकि वैज्ञानिक विश्लेषण डेटा और तथ्यों पर आधारित होता है, जो शायद “टीआरपी” के लिए आकर्षक न हो। वहीं, राजनीतिक तंत्र में वैज्ञानिक सलाह को कई बार विकास परियोजनाओं में बाधा के रूप में देखा जाता है। इसके अलावा, वैज्ञानिकों की जटिल और तकनीकी भाषा तथा संस्थागत प्रोटोकॉल भी उन्हें सार्वजनिक मंचों से दूर रखते हैं।
वास्तविक समाधान के लिए विशेषज्ञों की भूमिका अति महत्पूर्ण है । अगर हमें सच में आपदाओं का स्थायी “इलाज” खोजना है और अपनी नई पीढ़ी को इस विषय पर दक्ष बनाना है, तो इस “दिखास और छपास” की संस्कृति से बाहर निकलना होगा। योजनाकारों को तीन मुख्य विन्दुओं पर फोकस रख आगे की कार्ययोजना पर विचार करना चाहिए ।
1. डेटा-आधारित नीति निर्माण में वैज्ञानिक विशेषज्ञ ही हमें बता सकते हैं कि कौन-सा क्षेत्र भूस्खलन के प्रति कितना संवेदनशील है या कहाँ निर्माण कार्य पूरी तरह प्रतिबंधित होना चाहिए। उनकी सीधी भागीदारी यह सुनिश्चित करेगी कि नीतियां राजनीतिक हितों पर नहीं, बल्कि वैज्ञानिक प्रमाणों पर आधारित हों।
2. पूर्वानुमान और तैयारी से,ये संस्थान आपदाओं के पैटर्न का विश्लेषण करके सटीक पूर्वानुमान मॉडल विकसित करने में मदद करते हैं। उनकी विशेषज्ञता हमें आपदा के बाद राहत कार्यों से आगे बढ़कर आपदा-पूर्व तैयारी और रोकथाम की ओर ले जा सकती है।
3. समाज में वैज्ञानिक चेतना के कार्यक्रमों में जब विशेषज्ञ सीधे जनता से संवाद करेंगे, तो समाज में आपदाओं को लेकर एक गंभीर और तार्किक समझ विकसित होगी। इससे अफवाहों पर अंकुश लगेगा और लोग सुरक्षित भविष्य के लिए सही निर्णय ले सकेंगे।
समय आ गया है कि हम अपने इन गुमनाम नायकों को पहचानें और उन्हें नीति-निर्माण की प्रक्रिया में केंद्रीय भूमिका दें। उत्तर भारत की सुरक्षा और सतत विकास केवल नारों और घोषणाओं से संभव नहीं होगा, इसके लिए हमें अपने वैज्ञानिकों के ज्ञान और अनुभव का सम्मान करना होगा और उनकी चेतावनियों को गंभीरता से लेना होगा। जब तक हम ऐसा नहीं करते, हम हर आपदा के बाद केवल शोक और मुआवजे की राजनीति तक ही सीमित रह जाएंगे।