उत्तराखंड

कुरुक्षेत्र का निष्काम कर्मयोगी: केदारघाटी के सपूत राजेंद्र सिंह राणा को श्रद्धांजलि

राजेंद्र सिंह राणा: तुम ही सो गए दास्तां कहते कहते …..

केदारघाटी के विनम्र सपूत राजेंद्र सिंह राणा इस तरह अचानक गुप चुप चला जाएगा, यह बेहद आहत करने वाली खबर है। सहसा यकीन नहीं होता कि स्वस्थ और कर्मठ व्यक्तित्व महज स्मृतियों में शेष रह जाएगा, यह कल्पना से भी परे बात है। राजेन्द्र सिंह राणा निसंदेह एक उद्भट विद्वान पुरातत्वविद् थे, और कुरुक्षेत्र की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और धार्मिक विरासत के प्रति समर्पित एक सच्चे साधक थे। उनका सम्पूर्ण जीवन भारतीय संस्कृति, पुरातात्विक शोध और कुरुक्षेत्र के विकास को समर्पित रहा। इस कारण यह व्यक्तित्व बेशक केदारघाटी अथवा गढ़वाल हिमालय में जुबां पर न चढ़ पाया हो किंतु उत्तराखंड की माटी की खुश्बू वे जीवन पर्यंत धर्मक्षेत्र में बिखेरते रहे और 28 जुलाई, 2025 को अचानक चुपचाप वैकुंठ धाम को प्रस्थान कर गए। उनके आकस्मिक निधन से समूचे सांस्कृतिक जगत को एक अपूरणीय क्षति हुई है। उनका जीवन, शोध कार्य और विरासत हमारे पास स्मृति के रूप में शेष है और आने वाली पीढ़ी को मार्गदर्शक के रूप में समंदर के प्रकाश स्तंभ की तरह हमेशा विद्यमान रहेगा।

प्रारंभिक जीवन: संघर्ष और संकल्प

राजेन्द्र सिंह राणा का जन्म उत्तराखंड के महान सिद्धपीठ कालीमठ में एक साधारण किसान परिवार में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा पहले कालीमठ और उसके उपरांत विद्यापीठ में हुई। आर्थिक अभावों के बावजूद उन्होंने शिक्षा के प्रति अदम्य लगन दिखाई। कौन यकीन करेगा कि जीवनयापन के लिए उन्होंने मजदूरी की, केदारनाथ में घोड़े-खच्चर चलाने जैसे कठिन कार्य किए, यहाँ तक कि दिल्ली की सड़कों पर भी फाकामस्ती के साथ कठिन श्रम किया। तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद राजेंद्र सिंह राणा ने हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय से भूगर्भ विज्ञान और पुरातत्व में विशेषज्ञता प्राप्त की। यही उनके भविष्य की नींव बनी और एक बड़े मुकाम तक पहुंचे।

श्रीकृष्ण संग्रहालय रहा राजेंद्र राणा की तपस्थली

अत्यंत मेधावी और प्रतिभाशाली राजेंद्र सिंह राणा ने 1991 में श्रीकृष्ण संग्रहालय, कुरुक्षेत्र से जुड़कर अपनी सेवा-यात्रा आरंभ की। यह वही संग्रहालय है जो भारतीय संस्कृति के धर्म, न्याय और संस्कार को प्रतिबिंबित करने वाले महाभारत और भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गीता ज्ञान की धरती है। उनकी प्रतिभा को देखते हुए वर्ष 2020 में संग्रहालयाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद भी वे कुरुक्षेत्र विकास बोर्ड से जुड़े रहे और निरंतर अपनी सेवाएँ निष्ठापूर्वक देते रहे। उनके लिए संग्रहालय महज एक संस्था नहीं, बल्कि एक तपस्थली थी, जहाँ उन्होंने समय, सुविधा और स्वास्थ्य की परवाह किए बिना निरंतर कार्य किया और अंत समय तक साधनारत रहे।

उनकी सृजनशीलता और पुरातात्विक दक्षता के कारण ही श्रीकृष्ण संग्रहालय एक विचारोत्तेजक सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित हुआ। उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय और उपलब्धि है – ’48 कोस कुरुक्षेत्र’ का गहन सर्वेक्षण कर इसकी पौराणिक एवं ऐतिहासिक प्रामाणिकता का वैज्ञानिक दस्तावेजीकरण। यह उनके प्रयासों से ही सिद्ध हुआ कि यह भूमि महाभारतकालीन पांडवों और भगवान श्रीकृष्ण की कर्मस्थली है।

पुरातत्व और सांस्कृतिक धरोहर का संरक्षण

राजेंद्र सिंह राणा ने कुरुक्षेत्र के तीर्थ स्थलों को न केवल नक्शों पर उकेरा, बल्कि भव्य प्रदर्शनियों, शोधपत्रों और शैक्षणिक संवादों के माध्यम से उन्हें जीवंत भी किया। उनके मार्गदर्शन में अनेक ऐतिहासिक स्थलों का उत्खनन और संरक्षण कार्य सम्पन्न हुआ। उनका साहित्यिक योगदान भी अत्यंत महत्वपूर्ण रहा। कॉफी टेबल बुक्स, शोधपरक पुस्तकें, प्रदर्शनी साहित्य, रेडियो नाटक, डॉक्यूमेंट्री स्क्रिप्ट और पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके लेखों ने भारतीय संस्कृति की विविधता और कुरुक्षेत्र के वैभव को जन-जन तक पहुँचाया।

पांडवों से संबंध और राजेंद्र की पारिवारिक विरासत

राजेन्द्र सिंह राणा के विषय में एक रोचक तथ्य यह है कि उनका पारिवारिक इतिहास भी पांडवों से जुड़ा रहा है। उनके पिता स्वर्गीय जयसिंह राणा कालीमठ के पूर्व प्रधान भी थे। वे अपने गाँव में पांडवों के पूजा अनुष्ठान नृत्य में ‘अर्जुन के पश्वा’ का किरदार निभाते थे। यह भूमिका आज भी उनके भतीजे द्वारा निभाई जाती है। इस प्रकार, पुरातत्व और संस्कृति के प्रति उनका लगाव एक पारिवारिक विरासत का हिस्सा था। यूं भी केदारघाटी में एक मान्यता है कि स्वर्गारोहण से पूर्व पांडवों ने अपने अस्त्र शस्त्र और समस्त सिद्धियां यहां के मूल निवासियों को समर्पित कर दी थी और स्थानीय निवासियों को उन्होंने आश्वस्त किया था कि जब भी वे आह्वान करेंगे, पांडव सूक्ष्म रूप में उनके बीच आयेंगे। लोकविश्वास की इसी भावना के वशीभूत विभिन्न गांवों में श्रद्धा के साथ अनुष्ठान के तौर पर पांडव नृत्य का आयोजन किया जाता है।

आखिरी सांस तक रहे कार्यरत

राजेंद्र सिंह राणा कभी विश्राम न करने वाले व्यक्ति थे। उनका साधना कर्म अंतिम सांस तक जारी रहा। वे केदारनाथ क्षेत्र में पुरातत्व संरक्षण और ऐतिहासिक वस्तुओं के अभिलेखीकरण के लिए भी काम करना चाहते थे, किंतु उनकी यह इच्छा पूरी न हो सकी। 28 जुलाई, 2025 को वे अपनी कर्मभूमि कुरुक्षेत्र की माटी में समाहित हो गए, जहाँ उन्हें हर कण में भगवान कृष्ण और पांडवों का संग्रह और कौरवों की कुटिलता और धूर्तता की छवि दिखाई देती थी।

कर्म में ही रहा सदा विश्वास

राजेन्द्र सिंह राणा का जीवन

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” के आदर्श का जीवंत उदाहरण था। उन्होंने निस्वार्थ भाव से कुरुक्षेत्र की सेवा निष्काम कर्मयोगी की तरह की। उन्होंने कभी भी न प्रतिष्ठा की कामना की, न पुरस्कार की इच्छा। अलबत्ता उनके कार्यों ने कुरुक्षेत्र को विश्व पटल पर एक अलग पहचान जरूर दिलाई। आज देश-विदेश से आने वाले पर्यटक जिस कुरुक्षेत्र और वहां संचित संग्रहालय को देखते हैं, उसके विकास में राजेंद्र सिंह राणा का योगदान अमूल्य है। उसका मूल्यांकन समय करेगा।

श्रीकृष्ण संग्रहालय और कुरुक्षेत्र विकास बोर्ड उनके अविस्मरणीय योगदान को सदैव स्मरण करता रहेगा। उनकी स्मृतियाँ, विचार और कर्म सबके हृदयों में सदैव जीवित रहेंगे। उनकी लगन, सकारात्मक दृष्टिकोण और निःस्वार्थ समर्पण भावी पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का अक्षय स्रोत बने रहेंगे।

गीता के कर्मयोग की भांति राजेंद्र सिंह राणा का केवल नश्वर शरीर हमारे बीच नहीं है किंतु अपने पुरुषार्थ, मेधा, प्रतिभा, कर्मठता और कौशल के प्रतिबिंब के साथ वे अमर हैं—कुरुक्षेत्र की माटी में, संस्कृति की धरोहर में और हमारी स्मृतियों में।” उनकी स्मृतियां ही पूंजी हैं और नई प्रतिभाओं का मार्गदर्शन करने के लिए प्रतिमान गढ़ गए हैं। राजेंद्र सिंह राणा हमेशा यादों में बने रहेंगे। केदारघाटी के इस सपूत को विनम्र श्रद्धांजलि।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button