जलते जंगल, बुझती उम्मीदें: उत्तराखंड की वनाग्नियों पर एक संकट चेतावनी

जलते जंगल, बुझती उम्मीदें
उत्तराखंड, हिमालय की गोद में बसा एक संवेदनशील राज्य है । जहां प्रकृति का सौंदर्य जितना दिव्य है, कभी कभी उतना ही विकराल हो उठता है जब आपदा का रूप धर लेता है। बीते दो दशकों में इस पर्वतीय प्रदेश ने भूकंप के झटकों, बादल फटने, भूस्खलन, बर्फीले तूफान और विशेष रूप से वनाग्नियों की विभीषिकाएं झेली हैं। हर साल गर्मियों में धधकते जंगल न केवल जैवविविधता को लीलते हैं, बल्कि स्थानीय समुदायों की आजीविका, पानी के स्रोतों और पर्यावरणीय संतुलन को गहरा नुकसान पहुँचाते हैं।
वर्ष 2000 के बाद से, उत्तराखंड में वनाग्नि को रोकने के लिए कई योजनाएँ बनीं—फायर अलर्ट सिस्टम, वन अग्निशमन योजना, ग्रीन इंडिया मिशन, लेकिन इनका ज़मीनी क्रियान्वयन बेहद कमजोर रहा। बजट जारी तो हुआ, लेकिन उसका पारदर्शी उपयोग नहीं हो पाया।
वन विभाग में स्टाफ की भारी कमी, संसाधनों की अनुपलब्धता, और अधिकारियों की जिम्मेदारी तय न होना एक स्थायी समस्या बन चुकी है। ‘टॉप-डाउन अप्रोच’ के चलते न तो स्थानीय समुदायों को योजना निर्माण में शामिल किया गया, न ही उनकी पारंपरिक जानकारी को महत्व दिया जाता है ।
उत्तराखंड के ग्रामीण समुदाय केवल पीड़ित नहीं हैं, वे समाधान का हिस्सा बन सकते हैं,यदि उन्हें जिम्मेदारी और अधिकार दोनों दिए जाएँ। उदाहरण के लिए, गढ़वाल और कुमायूँ मंडलों के कुछ क्षेत्रों में स्वयंसेवी संगठनों और ग्रामीणों ने मिलकर सामूहिक निगरानी प्रणाली विकसित की है, जिससे आग की घटनाओं में उल्लेखनीय कमी आई है। साथ ही महिलाएँ जल, जंगल और जमीन से गहराई से जुड़ी हैं। उन्हें यदि स्वच्छ ईंधन, पानी और आजीविका के अवसर मिलें तो वे वन संरक्षण की अगुवा बन सकती हैं।
उत्तराखंड की वनाग्नियाँ केवल एक मौसमी समस्या नहीं, बल्कि एक गहराता पारिस्थितिकीय और प्रशासनिक संकट हैं। इसका समाधान केवल मशीनों, हेलिकॉप्टरों और बजट से नहीं, बल्कि स्थानीय भागीदारी, पारंपरिक ज्ञान और जवाबदेह प्रशासन से निकलेगा।
अगर संकट का समाधान ऊपर से नहीं, नीचे से उगे तो यही नीति उत्तराखंड को जलते जंगलों से बचा सकती है।