राजनीति

उभरता तालिबान : बढ़ती आशंकाएं

एतिहासिक पृष्ठभूमि : अशोक के समय था भारत का हिस्सा

प्रमोद शाह की कलम से

पुलिस अफसर से साथ ही चिंतक और स्तंभकार प्रमोद शाह

सिकंदर के भारत आगमन के समय अफगानिस्तान एक स्वतंत्र रियासत के रूप में वजूद में था। लेकिन ढाई हजार वर्ष के ज्ञात इतिहास में युद्ध और राजनीतिक अस्थिरता ही अफगानिस्तान की पहचान बनी रही है। सम्राट अशोक के समय अफगानिस्तान भारत का हिस्सा बना। यहां बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ और  जब बुद्ध की मूर्तियां बननी प्रारंभ हुई  तो संसार की सबसे ऊंची मूर्तियां  बुद्ध की बनियान प्रांत में ही बनाई  गई। कुषाण शासन में बुद्ध की मूर्तियों की एक अलग विधा अफगानिस्तान से ही प्रचलित होकर भारत पहुंची। इस प्रकार सांस्कृतिक रूप से भारत का अफगानिस्तान से बहुत पुराना संबंध है।

भौगोलिक रूप से उच्च हिमालयी क्षेत्र के मध्य 53 किमी. लंबा खैबर दर्रा हमेशा से ही भारत और मध्य एशिया को जोड़ने के लिए महत्वपूर्ण मार्ग रहा। इस मार्ग से अधिकांश आक्रमणकारी भारत आए। इनमें चंगेज़ ख़ान, बाबर, पश्तून अफगान बहलोल लोदी जो लोदी वंश के संस्थापक रहे, बाद में अकबर और औरंगजेब के शासन में यह काफी हद तक  स्थाई शासन रहा , फिर अहमद शाह अब्दाली का संबंध भी अफगानिस्तान से ही है।

इस प्रकार भारत के हिस्से अफगानिस्तान का लम्बा सांझा इतिहास है। लेकिन अधिकता आक्रमणकारियों की ही रही है। इस इतिहास को बदलने की अंग्रेजों ने  कोशिश की। अफ़गानों से तीन  युद्ध (1838,1878,1919)  लड़े। लेकिन वे कामयाब नहीं हुए। इसीलिए अफगानिस्तान को ब्रिटश साम्राज्य की कब्रगाह  कहा जाता है।जो भी हो मौजूदा अफगानिस्तान का राजनीतिक भूगोल अंग्रेजों की ही देन है । इस कड़ी में जहीर शाह 1933-1973 का साम्राज्य अफगानिस्तान का आज तक का बेहतरीन साम्राज्य कहा जा सकता है। जहां समाज व्यवस्थित और सुरक्षित रहा।

मौजूदा संघर्ष की शुरुआत। 1973 में अफगानिस्तान में कम्युनिस्ट शासन से हुई। इसका नेतृत्व नूर मोहम्मद तारीकी ने किया। कम्युनिस्ट धड़ों के आपसी संघर्ष में 1979 हाफिजजुल्ला आमीन ने तारीकी की  हत्या कर दी और खुद अफगानिस्तान का शासक बनकर इस्लामिक कट्टरपंथियों को संतुष्ट करने में लग गया। इससे कम्युनिस्ट  प्रशासन बदनाम हुआ।

 दिसंबर 1979 में सोवियत रूस ने अफगानिस्तान में सैनिक हस्तक्षेप किया। इसी वक्त ईरान में इस्लामिक क्रांति कामयाब हुई तो अफगानिस्तान में भी मोहम्मद रैजा की सत्ता कायम हुई। जिसने एक लोकतांत्रिक अफगानिस्तान के विकास की रूपरेखा तैयार की ,जो अमेरिका को मंजूर नहीं थी। इसी बीच अमेरिका ने पाकिस्तान के साथ मिलकर अफगानिस्तान में मुजाहिदीन को बढ़ावा दिया और अपना अब तक का सबसे बड़ा ऑपरेशन साइक्लोन लांच किया। इसमें 5 लाख डालर खर्च हुए। मुजाहिदीन नॉर्दन एलायंस के रूप में बड़े जिन्हें पाकिस्तान अमेरिका और इंग्लैंड ने मदद की मकसद रूस की सत्ता को कमजोर करना था. मुजाहिदीन नेता अहमद शाह मसूद था । 

इस बीच वर्ष 1986- 87 में सोवियत संघ के मदद से मोहम्मद नजीबुल्लाह की सरकार अफगानिस्तान में बनी तो 1987 में नया संविधान लागू किया गया। यह सरकार विदेशी निवेश आमंत्रित करती है और राजनीतिक युद्ध बंदियों को रिहा करती है। इस सरकार को सोवियत रूस से समर्थन प्राप्त होता है। इसलिए अमेरिका मुजाहिदीन के सहारे यहां गृह युद्ध जारी  रखता है।

1990 में अफगानिस्तान से कम्युनिस्ट शासन के सारे निशान मिटा दिए जाते हैं और अफगानिस्तान इस्लामिक स्टेट बन जाता है। और आखिरकार 1992में अब्दुल गनी को हटाकर मुजाहिद्दीन बुरहानुद्दीन रब्बानी कि सरकार अस्तित्व में आती है। क्योंकि सोवियत संघ अब शक्ति नहीं है और मुजाहिदीन कि अलकायदा से नजदीकियां बढ़ रही होती हैं। इसलिए वर्ष 1996 में दक्षिण अफगानिस्तान में मुल्लाह उमर के नेतृत्व में कट्टरपंथी इस्लामिक गुट तालिबानी  अस्तित्व में आता है। जो पांच  वर्ष तक अफगानिस्तान में क्रूर शासन करता है.

अमेरिका में 9-11 के हवाई हमले के बाद अमेरिका इस्लामिक कट्टरपंथियों को सबक सिखाने के लिए अफगानिस्तान पर हमला करता है। तालिबानी सरकार परास्त होती है। मोहम्मद अब्दुल करजई अफगानिस्तान के राष्ट्रपति बनते हैं। एक नए युग का प्रारंभ होता है। चुनाव में 60 लाख लोगों की भागीदारी होती है और लोकतंत्र की उम्मीद जगती है।

लेकिन तालिबान लगातार लड़ता रहता है पाकिस्तान  सऊदी अरब  और  अमीरात तालिबान का खुलकर समर्थन करते हैं।  तालिबान की हिंसा जारी रहती है  और विदेश में  कूटनीतिक प्रयास भी। कूटनीतिक प्रयासों में 2009 में पाकिस्तान किस्सा याद घाटी में पाकिस्तान में तालिबान की गतिविधियों के लिए अनुमति का मिलना, तालिबान लड़ाकों के आवास की सुविधा एक तरह से तालिबान की एक विजय ही थी। 2014 में अशरफ गनी के राष्ट्रपति बन जाने के बाद तालिबान फिर मजबूत हुए।  कतर में तालिबान का राजनीतिक कार्यालय खोला गया जिसके परिणाम आए। फरवरी 2020 में डोनाल्ड ट्रंप के साथ अफगानिस्तान से सैनिक वापसी पर समझौता हुआ।

इधर अमेरिका की 70 फीसदी आबादी अफगानिस्तान में सैन्य हस्तक्षेप से नाराज थी इस कारण अफगानिस्तान से सेना को हटाना अमेरिका की मजबूरी बन रही थी और अफगानिस्तान में रहकर कोई तात्कालिक भी प्राप्त नहीं हो रहे थे। 15 अगस्त 2021 रात्रि में तालिबान लड़ाकों ने काबुल पर रक्तहीन कब्जा किया। इससे पहले राष्ट्रपति अशरफ गनी  देश छोड़कर भाग गए।

काबुल में तालिबान सरकार बनने जा रही है वह पहले से अधिक अनुभवी और अंतरराष्ट्रीय भावना का सम्मान करती प्रतीत होती है। इस सरकार में अब्दुल गनी बरादर के साथ मुल्ला याकूब उमर ,सिराजुद्दीन हक्कानी , मौहम्मद अब्दुल्ला अखुंद जादा तथा मोहम्मद असलम स्टानिक  महत्वपूर्ण होंगे।

इधर, अफगानिस्तान में भारत के 22500 करोड रुपए के विकास कार्य दांव पर लगे हैं। तो दूसरी ओर चीन, पाकिस्तान, सऊदी अरब, अमीरात, तथा पूर्व सोवियत संघ के मुस्लिम देशों का तालिबान को समर्थन प्राप्त हो चुका है। ऑर्गेनाइजेशन आफ इस्लामिक स्टेट के तालिबान के प्रति नरम रुख से भारत के लिए कठिन परिस्थितियां उत्पन्न होने की संभावना दिख रही है।

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