बाला साहब देवरस की राजनीतिक परिकल्पना की प्रतिनिधि हैं मुर्मू
दशकों बाद असर दिखाते हैं सियासी फैसले
प्रमोद शाह
राजनीति को दशकों के निवेश की प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है, आज लिए गए फैसले दसको बाद अपना असर दिखाते हैं। इस बात को भारत के पंद्रहवें और दूसरी महिला राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू की विजय से आसानी से समझा जा सकता है।
वर्ष 1964 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद भारतीय राजनीति का लोकतांत्रिक ताना-बाना कमजोर हुआ। चीन युद्ध में पराजय के बाद कांग्रेस बेकफुट पर थी। कांग्रेस को जातिगत आधार पर अन्य पिछड़े वर्ग और पिछड़े वर्ग की जातियों की राजनीतिक गोलबंदी ने तगड़ा झटका दिया। 1967 तक 10 से अधिक राज्यों में कांग्रेस की सरकार चली गई। लेकिन मत प्रतिशत की दृष्टि से कांग्रेस के पास अभी भी 40 प्रतिशत मत थे। जबकि जनसंघ दूसरी बड़ी पार्टी बनकर भी 9.3 प्रतिशत मत पर ही सीमित थी ।
भारतीय राजनीति की इस सामाजिक संरचना और विघटन को विभिन्न राजनीतिक दल और विचारक बड़ी गहराई से देख रहे थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघ चालक गुरुजी गोलवलकर की रूचि इन राजनीतिक तिकड़मों में कम ही थी। उनका विश्वास संगठन और सेवा में ही अधिक था। लेकिन पंडित दीनदयाल उपाध्याय एकात्म मानवतावाद के सिद्धांत से पिछड़े वर्ग के वोटों के बिखराव को जनसंघ के पक्ष में केंद्रित करना चाह रहे थे। इस कार्य में वह कितने कामयाब हुए यह अलग समीक्षा का विषय है। लेकिन 6 जून 1973 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक का कार्यभार जैसे ही मधुकर दत्तात्रेय देवरस अर्थात बाला साहब देवरस ने ग्रहण किया तब से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में राजनीतिक सक्रियता के एक नए युग का सूत्रपात हुआ।
अपनी सामाजिक सक्रियता तथा विपरीत राजनीतिक मतावलम्बियो में स्वीकार्यता के गुण का बाला साहब ने जनसंघ के राजनीतिक विस्तार के लिए चतुराई से उपयोग किया। श्रीमती इंदिरा गांधी के विरुद्ध आपातकाल में चलाए जा रहे राष्ट्रीय आंदोलन में आप जयप्रकाश नारायण, मधु दंडवते, मधुलिमये जॉर्ज फर्नांडीज जैसे समाजवादियो को साधने में कामयाब रहे और संयुक्त विपक्ष का हिस्सा बन गए।
जनता पार्टी के प्रयोग की सफलता और बिखराव के बाद बाला साहब देवरस इस राजनीतिक तथ्य को समझ गए कि भारत में राजनीतिक सत्ता की चाबी सिर्फ उच्च वर्ग के हिंदुओं के सहारे प्राप्त नहीं की जा सकती है। इसके लिए अनुसूचित जाति के साथ ही आदिवासियों में संघ का विस्तार और स्वीकार्यता आवश्यक होगी।
राजनीतिक कामयाबी के इस मूलमंत्र को समझने के साथ ही बाला साहब देवरस ने इसे साधने की दिशा में तेजी से कदम बढ़ाए। 1978 में महाराष्ट्र में अनुसूचित जातियों के लिए “पतित -पावन ” संगठन का गठन किया। तो 1979 में वनवासी कल्याण आश्रम का फिर से पुनर्गठन कर उसे राष्ट्रीय स्वरूप देते हुए सेवा भारती संगठन की स्थापना की।पहला वनवासी आश्रम जसपुर छत्तीसगढ़ में खोला। जहां की गाहिरा गुरु पहले से ही ईसाइयों के विरुद्ध धर्मांतरण की लड़ाई लड़ रहे थे। उनकी लोकप्रियता का सीधा लाभ संघ को मिला।
भारत में लगभग 15 प्रतिशत अनुसूचित जाति और 8प्रतिशत अनुसूचित जनजाति आदिवासी निवास करते हैं। राजनीतिक विजय की दृष्टि से यह आंकड़ा बेहद महत्वपूर्ण है। भारत के 14वे राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद जहां अनुसूचित जाति से आते थे। वहीं 15वे राष्ट्रपति के रूप में पहले आदिवासी के रूप में श्रीमती द्रौपदी मुर्मू का चुना जाना , बाला साहब देवरस की परिकल्पना का साकार होने जैसा है।
भारत के आदिवासी समुदायों में आंध, गोंड, खरवार, मुण्डा, खड़िया, बोडो, कोल, भील, कोली, सहरिया, संथाल, मीणा, भूमिज, उरांव, लोहरा, बिरहोर, पारधी, असुर, टाकणकार आदि प्रमुख हैं। राष्ट्रपति मुर्मू उड़ीसा के संथाल आदिवासी समुदाय से संबंध रखती हैं। भारत में आदिवासी बस्तर को अपना गृह प्रदेश समझते हैं। जिसका कई बार विभाजन हुआ है। जिस विभाजन के परिणाम स्वरूप आदिवासी जातियों का बिखराव, उड़ीसा छत्तीसगढ़ और झारखंड प्रदेश में हुआ है। जहां आज भी आदिवासी 25 प्रतिशत से अधिक संख्या में हैं।
अलग-अलग राज्यों में होने के बाद भी आदिवासियों की समस्या पूरे राष्ट्र में कमोबेश एक ही है। यह है जंगल में उनके अधिकार और सांस्कृतिक जीवन की निर्भरता की बहाली पर ही है। आज भारत में जो नक्सलवाद की समस्या है, उसकी जड़ में आदिवासियों का शोषण और उनकी समस्याओ का समाधान न होना ही है।
दरअसल, आदिवासियों की समस्या का प्रारंभ1871 में ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार ने विशेष रूप से प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध क्षेत्रों में आरक्षित वनों की स्थापना करने से शुरू होता है। इससे राज्य को यह तय करने की अनुमति मिल गई कि जंगल और उसके संसाधनों का उपयोग करने की अनुमति किसे है। यदि श्रीमती द्रोपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बन जाने के बाद आदिवासियों की समस्या के समाधान की दिशा में कुछ सकारात्मक कदम उठाए जाते हैं। जंगल के कानूनों में आदिवासियों की भावना के अनुरूप बदलाव होता है, तो निश्चित रूप से यह आदिवासियों के 150 वर्ष के संघर्ष का समाधान होगा और भारत में नक्सलवाद का समापन भी।