पहाड़: विकल्प नहीं, अवसर – उत्तराखंड के नव निर्माण की राह

पहाड़ को विकल्प नही अवसर बनाएँ ।
उत्तराखंड का वर्तमान भले ही चुनौतियों से भरा हो, लेकिन उसका भविष्य अब भी उम्मीदों से रचा जा सकता है। संकट के बीच संभावनाएँ तब ही उभरती हैं जब नीति, समाज और व्यक्ति एक दिशा में सोचें और चलें। पलायन, खेती का संकट, वन्यजीव संघर्ष और सांस्कृतिक विघटन, इन सभी समस्याओं का हल स्थानीय समाधान, तकनीकी नवाचार और पारंपरिक ज्ञान के समन्वय से ही निकलेगा । जरूरत है मजबूत और समर्पित राजनीतिक इच्छाशक्ति की!
जैसा कि हम पहले भी जिक्र कर चुके हैं कि खेती से मेहनत के अनुपात में लाभ कम होने से लोग खेती छोड़ रहे हैं । अगर जिम्मेदार विभाग तकनीक बाजार और ट्रांसपोर्ट की सुविधा किसानों के लिए उपलब्ध करा दे तो खेती को लाभकारी और सम्मानजनक बना पलायन और बंजर होती जोत को पुनः सरसब्ज किया जा सकता है ।
जैविक खेती की ब्रांडिंग के द्वारा मंडुवा, झंगोरा, गहत, भट आदि को ऑर्गेनिक प्रमाणन और ‘हिमालयन ब्रांड’ के तहत राष्ट्रीय बाज़ार में स्थापित किया जा सकता है। इससे स्थानीय किसानों को बेहतर मूल्य मिलेगा। हम कई मंचों के माध्यम से कह चुके हैं कि अब ब्लाक स्तर पर क्लस्टर मॉडल गांवों के समूह बनाकर सामूहिक खेती, भंडारण और विपणन आदि के धरातलीय प्रयोग करने पड़ेंगे ।इससे लागत घटेगी और लाभ बढ़ेगा। स्मार्ट कृषि तकनीक: ड्रिप सिंचाई, मोबाइल ऐप आधारित मौसम पूर्वानुमान और बीज संरक्षण तकनीक से युवाओं को कृषि के प्रति आकर्षित किया जा सकता है।
पहाड़ की खेती को पुनः स्थापित करने में युवाओं की अहम भूमिका हो सकती है । पहाड़ के पुनर्निर्माता के रूप में,, अगर लौटे हुए युवाओं को भूमि, उपकरण, ऋण और प्रशिक्षण के माध्यम से स्वरोजगार से जोड़ा जाए। स्थानीय उद्यम हस्तशिल्प, मधुमक्खी पालन, फूलों की खेती, लोक पर्यटन (eco-tourism) और कुटीर उद्योग को युवाओं से जोड़ना चाहिए।
मानव वन्यजीव संघर्ष का समाधान सह-अस्तित्व में स्थानीय निगरानी तंत्र गांवों में वन मित्र दल गठित हों, जो वन्यजीव गतिविधियों पर नज़र रखें और प्रशासन से समन्वय बनाएं। विकास परियोजनाओं में वन नीति का पालन अनिवार्य हो। सड़क, पर्यटन या अन्य निर्माण में जैव विविधता को प्राथमिकता दी जाए।
संस्कृति और भाषा का संरक्षण के क्रम में शिक्षा में स्थानीयता: स्कूलों में गढ़वाली और कुमाऊँनी भाषा, लोककला, पारंपरिक ज्ञान को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए। सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रत्येक गांव में आयोजित हो, जिसमें लोक संस्कृति, गीत, नृत्य, व्यंजन और शिल्प को बढ़ावा मिले।
राज्य नीति और भागीदारी के आलोक में पर्वतीय क्षेत्र विशेष विकास नीति लागू हो, जिसमें जलवायु, भौगोलिक कठिनाइयों और जनसंख्या घनत्व को ध्यान में रखते हुए योजनाएँ बनाई जाएं। ग्राम सभा और पंचायतीराज को सशक्त बनाना जरूरी है, जिससे विकास योजनाएं स्थानीय ज़रूरतों के अनुरूप बनें और लागू हों।
अंत में,
उत्तराखंड की समस्याएँ गंभीर हैं, पर समाधान असंभव नहीं। यह केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं । यह हर उस व्यक्ति की जिम्मेदारी है, जो पहाड़ से जुड़ा है या जिसने कभी वहां की हवा में सांस ली है।#पलायन को पलटना है, तो पहाड़ को विकल्प नहीं, अवसर बनाना होगा।किसानों को सहारा देना है तो खेतों को सम्मान देना होगा। वन्यजीवों से टकराव नहीं, संवाद की भाषा बनानी होगी।
आइए, मिलकर एक ऐसा उत्तराखंड गढ़ें, जहां गांवों में जीवन हो, खेतों में हरियाली हो, जंगलों में शांति हो और युवाओं में उम्मीद हो।