महानगरों की कोख से जन्मा विश्व पर्यावरण दिवस
रतन सिंह असवाल की फेसबुक वॉल से
देहरादून। बात यदि पर्वतीय राज्य की हो तो “मंगतू ठेकेदार”, “बिगरु गलदार”, और “फटकाधारी पद्द्मलोलुप” से लेकर “वस्त्रविन्यासी” लोगों को को इस उत्तराखंड राज्य में विशेष दर्जा प्राप्त है।
दूसरी ओर गर आम आदमी की बात करें तो उसे छोटे-छोटे कामों के लिए आज भी जूते घिसने पड़ते हैं। कभी कभी तो इन छोटे कामों को सरकारी सिस्टम की खातिर उसे अपनी पुगंडी या बीबी के गहने भी बेचनी पड़ जाने वाले ठैरे। इसलिए ज्यादा चिंता करके रक्तचाप बढ़ाने से दवाई के खर्चो का बोझ बढ़ाने की सलाह नहीं दी जा सकती।
पर्वतीय संस्कृति और मूल की छाती में मूंग दलकर अति विशेष बनने वाले अवैध कब्जेधारियों के खैरख़्वाओ के लिए अवैध को वैध करने हेतु नियमों को बदलना, हमारी प्रवृति में शामिल हो गया है। अब राज्य की मूल जनता की यह नियति सी बना दी गई है। जब जब विशिष्टों की सुविधाओं के लिए जरूरत महसूस हुई तो अध्यादेश भी लाया जा सकने वाले हुए बल इन पद्मलोलुपों पर मेहरबानी को।
बाद बाक़ी, पर्यावरण के नाम पर अपनी दुकान चलाकर अपने परिवार की जरूरतें पूरी कर पहाड़ के विकास और पहाड़ी जनमानस को पलायन के लिए मजबूर करने वाले नीति नियन्ताओं और झंडाबरदार रंग-बिरंगे फटकाधारियों समेत सभी भाई बहनों को विश्व पर्यावरण दिवस की बधाई।
आशा है कि कोरोना महामारी से क्षत-विक्षत जनता के मर्म को समझते हुए जल, जंगल, बुग्याल, हिमालयी जड़ी बूटियों और पर्यटन को आम जनता की पहुंच से दूर रख और आम जनमानस के भविष्य से खिलवाड़ करने वाले अब चेतेंगे। राज्य की नैसर्गिक धरोहर को रोजगारन्मुख बनाकर पलायन को रोकने के प्रयास सब मिलकर करेंगे। सुविधा संपन्न लोगों को अब इसकी महत्वपूर्ण कड़ी बनना होगा। सफलता की कुंजी नैसर्गिक धरोहरें बांहें फैलाए खड़ी हैं। आगे बढ़ो…नमस्कार
अजय अजेय रावत लिखते हैं कि इस धरा धाम पर वृक्ष सनातन हैं। मानव से पूर्व का प्रादुर्भाव है वृक्ष। वृक्षों पर मानव जीवन आधारित है। वृक्ष न होंगे तो मानव का अस्तित्व संभव नहीं है। लेकिन वृक्ष मानव के बिना भी अपना अस्तित्व बनाये रख सकते हैं। बावजूद इसके बीते 3-4 दशकों में वन, वन्य जीव और पर्यावरण के नाम पर न जाने कितने ‘सेल्स मैन’ कहां से कहां पंहुच गए। पदम् श्री से पद्म भूषण हो गए। कितने ‘दलाल’ पर्यावरण के नाम पर दुकानदारी कर बनाए गए पैसे को ‘दलाल स्ट्रीट’ तक ले जाने लगे। और लफ़्फ़ाज़ी इतनी कि गोया ये लोग लाल सफेद पीला नीला भगवा फ़टका न डालते, लंबी या अधकचरी दाढ़ी न रखते तो शायद पेड़, जंगल और पहाड़ अनाथ हो बेमौत मर जाते।
इसलिए पेड़ और जंगल हमसे कोटि-कोटि गुना सबल हैं। अपनी संततियों को पैदा करने, पालने का सामर्थ्य हमसे लाख गुना ज्यादा रखते हैं। हमें जंगलों के अभिभावक बनकर नहीं, बल्कि पेड़ की आगोश में बच्चे की तरह जीना सीखना होगा। गर ऐसा होगा तो फिर कोई पर्यावरण दिवस मनाने का स्वांग रचने की तनिक भी आवश्यकता न होगी।