जंगल में रहती हैं चांद पर दिखने वाली बूढ़ी मां
वरिष्ठ पत्रकार राजेश पांडेय का देहारदून से एक रिपोर्ताज
बचपन से सुनता आया हूं, चांद पर एक बूढ़ी मां रहती हैं, जो चरखा चलाती हैं। कहानियां सुनाने वाले कहते थे, जब भी बूढ़ी मां को याद करके चांद की ओर देखोगे तो तुम्हें चरखा चलाते हुए दिखेंगी। हम चांद पर तो नहीं गए, पर धरती पर ही उन्हीं की तरह एक और बूढ़ी मां से मिलकर आए। सच में, चांद वाली दादी उनसे ज्यादा सुंदर नहीं होगी। वो बहुत अच्छी हैं। जब हंसती हैं तो लगता है दादी इसी तरह खिल खिलाकर हंसती रहें।
दादी के बारे में हमें सिंधवाल ग्राम पंचायत के प्रधान प्रदीप सिंधवाल से पता चला। सूर्याधार झील से आगे करीब दो किमी. चलकर कंडोली गांव हैं। कंडोली से बाईं ओर खाई के बाद दिखने वाले पहाड़ पर, जो अकेला घर दिखाई देगा, वो दादी का है। दादी तक पहुंचने के लिए लगभग दो किमी. से ज्यादा चलना होगा, वो भी तेज प्रवाह वाली जाखन को दो बार पार करके। यहां नदी शोर मचा रही है, पास ही जंगल में झींगुरों की आवाज, मानो प्रकृति यहां अपने गीत संगीत में खोई है।
अब हम सभी दादी, जिनकी उम्र 80 साल से ज्यादा होगी, जिनका नाम बूंदी देवी है के पास पहुंचते हैं। वो यहां अकेली रहती हैं। उनके घर तक शायद ही कोई महीनों में पहुंचता होगा। वो तो दादी ही हैं, जो वृद्धावस्था पेंशन के लिए करीब 20 किमी. चलकर थानो तक पहुंचती हैं, वो भी तीन महीने में एक बार।
दादी खुद जमीन पर बैठकर कागजों की एक पोटली खोल लेती हैं। उनके पास रहने लायक यही कमरा बचा है, जिसका फर्श कच्चा है और इस पर गोबर- मिट्टी से लिपाई की गई है। बताती हैं, वो तो पशु नहीं पालतीं, गोबर एक घर से लेकर आई हैं, जो यहां से दूर है। दादी बताती हैं, बारिश में कमरे की छत टपकती है। खाट को कभी इधर तो कभी उधर सरकाना पड़ता है। पानी से बचने के लिए छत पर तिरपाल बिछाई है। मिट्टी का चूल्हा भी लीपा हुआ है और उसके ऊपर दो सरियों पर कुछ लकड़ियां रखी हैं। ये लकड़ियां ऐसे क्यों रखी हैं, पर बताती हैं कि चूल्हा जलने से इन लकड़ियों तक ताप पहुंचता है और इनमें नमी नहीं रहती। ये आसानी से जल जाती हैं।
दादी ने बताया कि वो रोज सुबह तीन बजे उठ जाती हैं। उनके पास न तो घड़ी है और न ही मोबाइल। ऐसे में समय कैसे पता चलता है। बताती हैं, तारों की छांव देखकर। दादी बताती हैं, उनके पास फोन नहीं है। यहां से फोन भी नहीं हो सकता। कहीं कोई सूचना देनी होती है तो पहले कंडोली (जहां से हमने यात्रा शुरू की थी) जाती हूं, वहीं से फोन करती हूं। थानो जाने के लिए कंडोली से कोई गाड़ी मिल गई तो ठीक, नहीं तो पैदल ही चलती हूं।
उनके पास अपने खाने के लिए राशन है। परिवार के जो लोग, यहां से रोजगार के सिलसिले में पलायन कर गए, वो उनका ख्याल रखते हैं। राशन देकर जाते हैं। आप यहां अकेली क्यों रहती हो, के जवाब ने हमें झकझोर दिया। वो बताती हैं, जब मैं यहां शादी होकर आई थी, तब मेरी उम्र 12 साल थी, जब वो 30 साल की थी, तब पति का देहांत हो गया था। मैंने यही रहकर अपने बच्चों की परवरिश की। आज मैं 80-90 साल की हो गई, तब से मैं यहीं रह रही हूं, यहां से मेरी यादें जुड़ी हैं। यहां रोजगार नहीं है, बच्चों को यहां से जाना ही था। बच्चों के अपने परिवार हैं, उनकी अपनी जिम्मेदारियां हैं। उनको खुशी-खुशी अपनी जिंदगी जीनी है। मैं अपना घर-गांव छोड़कर नहीं जा सकती।
किसी दुख तकलीफ में आप क्या करती हैं, पर दोनों हथेलियों को जोड़ते हुए छत की ओर देखते हुए कहती हैं, तब तो राम को ही पुकारती हूं। इंसान तो यहां दिखाई नहीं देते। यहां जंगली जानवर भी आ जाते हैं। बाघ तो कई बार दिख गया। दादी तो बहादुर हैं, वो किसी से नहीं डरती, मेरे इतना कहने पर बुजुर्ग मां फिर से मुस्कुराती हैं। चांद पर रहने वाली दादी को नजदीक से देखने की आपकी इच्छा पूरी हो जाएगी, जब आप धरती पर रह रहीं इन बुजुर्ग मां से मिलोगे।