एक्सक्लुसिव

समस्याओं से जूझ रही खेती-किसानी

देहरादून। किसान आंदोलनों पर तमाम तरह की उलाहनाओं के बीच ये भी उतना ही सत्य है कि अपने मुल्क में खेती किसानी अभी भी समस्याओं से जूझता हुआ परिक्षेत्र है। इस देश में जमूरे की  तरह हो चुका मुख्यधारा का मीडिया और बंदर की तरह उछलता शोसल मीडिया आवाम को सही सोचने का मौका भी नहीं देता , पिछले कुछ सालों में  भारतीय मीडिया के बंदरों ने हर उस बात को जिसमें कि गम्भीर विमर्श की जरूरत है उसे फजूल के डिस्कोर्स में ही बदलने का काम किया है।

मौजूदा किसान आंदोलन के पीछे मुद्दे क्या है इसके बजाय जब दिमाग में यह डाल दिया गया हो कि आंदोलन के पीछे कौन कौन राजनैतिक दल हैं और आंदोलन की परिणीति देशभक्ति या राष्ट्रीय सुरक्षा  के दृष्टिगत ही है तो इस बात  का कोई मतलब नहीं रह जाता कि आंदोलन करने वाले किसान थे भी या नहीं ….? 

दरअसल शायद कॉस्मो डिजिटल हो चुके हम इतने विक्षिप्त हो चुके हैं कि हमारी सोच किसान की सूरत फटेहाल लाठी टेके हुए के अलावा अच्छी गाड़ियों, साफ सुथरे कपड़े अंग्रेजी बोलते हुए बिसलेरी का पानी पीते हुए व्यक्ति को किसान मानने को तैयार ही नहीं….! घरों में रजाई के अंदर बैठे हुए देशभक्ति और राष्ट्रवाद पर व्यापक दृष्टिकोण के सहभागी हम यह भी भूल जाते है कि देश की सीमा पर लड़ते हुए जब सुखविंदर शहीद हुआ था तो उनके किसान पिता सिंघु बॉर्डर पर अपने हक की लड़ाई लड़ रहे थे ।

खैर फिलवक्त का सबसे बड़ा सत्य ये भी है कि जिस कृषि बिल को लेकर हल्ला मचा हुआ है देश की अधिसंख्य आबादी ने उसे पढ़ने समझने और व्याख्यायित करने की जहमत भी न उठायी होगी सिवा इस बात के कि वो किसानों के समर्थन में खड़ा हो गया या इस देश में नए नए राजनैतिक अधिनायकवाद के हिस्से के समर्थन में..।

सोच कर देखिये कि इस मुल्क में मुद्दों पर विमर्श की वर्तमान परिपाटी तो खौफनाक है ही पर उससे बड़ा खौफनाक समस्या जो कि फिलहाल इस मुल्क के लोकतंत्र की सबसे बड़ी समस्या भी है वो इस दौर का अधिनायकवाद है जिसमे राजनैतिक आराध्यों को पूजने की परंपरा आ गयी है और यही परम्पराएं जागृत के बजाय सुसुप्त आवाम की ओर ले जाती हैं।

समाज की परछाई को  फेसिनेटिंग बनाने के लिए फजूल के आइनों के सामने खड़ा होना बंद कर दीजिए वरना असल चेहरे पहचानने की रही सही क्षमताएं भी विलुप्त हो जाएंगी खुद की पहचान के लिए मोहताज होना पड़ेगा।

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