उत्तराखंडशिक्षा

खासी पठनीय है गोहन्ना डॉट कॉम

पीसीएस अफसर ललित नारायण मिश्रा की पुस्तक की समीक्षा सूचना में संयुक्त निदेशक नितिन उपाध्याय की कलम से

पीसीएस अफसर ललित नारायण मिश्रा की पुस्तक की समीक्षा सूचना में संयुक्त निदेशक नितिन उपाध्याय की कलम से

डॉ. ललित नारायण मिश्र की किताब *गौहन्ना डॉट कॉम* प्रभात प्रकाशन से आई है। ललित जी उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र के हैं, जहाँ गौहन्ना नाम के गाँव में उनका बचपन बीता। उसी गाँव के संस्मरण और लोक परम्पराओं की बेहद खूबसूरत चादर बुनी है उन्होंने, जिसका एक-एक धागा आपको बिसरा दिए गए ग्रामीण समाज – विशेष रूप से अवध के ग्रामीण समाज – की अनोखी दुनिया में पहुँचा देगा।

ललित जी की लेखन शैली इतनी सरल है कि उसमें कोई पर्देदारी नहीं हो सकती। स्थापित हिंदी लेखकों को यह सरलता न भी भा पाए, लेकिन मेरा मानना है कि जो शैली पाठक तक पहुँचे, उसे समझ आए, वही हर प्रकार से अच्छी होती है। *गौहन्ना डॉट कॉम* का हर पृष्ठ आपको हाथ पकड़कर गाँव की पगडंडी में उतार देता है। खेत-खलिहान, वहाँ के आँगन-ओसार, कोठार-बखार – सब आपके सामने जीवित हो उठते हैं। पुस्तक आपको पूर्वांचल-अवध के लोक व्यंजनों और पकवानों – ठेकुआ, फरा, बरा, सतुआ – की याद दिलाती ही नहीं, बल्कि उनका स्वाद आपके मुँह में घोल देती है।

एक गाँव के बालसुलभ मन की झलक दिखती है जब ललित बताते हैं कि सफ़ेद ‘दूब ’ पुस्तक में रखने से मास्टर साहब की पिटाई का डर नहीं रहता था। *राम जी की घोड़ी, पिड़की चिड़िया, गोरैया, गिद्ध, बड़वा बजागुर साँप* – सब मिलेंगे गोहन्ना के ‘चिड़ियाघर’ में। यही नहीं, ललित ने गाँव के कुछ प्रसिद्ध और प्रिय चरित्रों को भी अपनी पुस्तक में अमर कर दिया है – *मिसराइन चाची, शुक्ला दरोगा, जर्मन सिंह, मुल्ला पांडे, कुसहर मास्टर* – जो बहुत सरलता से, लेकिन मजबूती के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।

लगभग 160 पृष्ठों की इस किताब में छोटे-छोटे 53–54 अध्याय हैं। इसे एक ही बैठक में पढ़ जाना उचित नहीं, क्योंकि यह एक अत्यंत दुर्लभ स्वादिष्ट मिठाई को एक बार में झटके से खाने जैसा होगा। मेरा मानना है कि इसे धीरे-धीरे पढ़ना चाहिए – हर पन्ने का स्वाद लेकर, आँखें बंद कर गाँव-खेत-खलिहान में उतर जाना चाहिए। क्योंकि जैसे ही आप ‘गौहन्ना ’ से बाहर आएँगे, आपको फिर से आधुनिक दुनिया का एक झटका लगेगा।

इस पुस्तक का विशेष महत्व इस बात में है कि यह सिर्फ़ गाँव की स्मृतियों को ही नहीं जगाती, बल्कि यह भी एहसास कराती है कि पिछले 30-40 वर्षों में ग्रामीण भारत कितना बदल चुका है। टेलीविज़न, मोबाइल और शहरी संस्कृति ने गाँव के जीवन और वहाँ की आत्मीयता को बहुत हद तक प्रभावित किया है। *गौहन्ना डॉट कॉम* हमें उन दिनों में लौटने का अवसर देता है जब रिश्तों में सहज आत्मीयता थी, जब गाँव की गलियों में खेलते बच्चे, टोकते-डाँटते बड़े और हर त्यौहार पर सामूहिक उत्सव का माहौल जीवन का स्वाभाविक हिस्सा थे।

इस पुस्तक को पढ़ते हुए हिंदी साहित्य की वह परंपरा याद आती है, जिसमें गाँव, खेत-खलिहान और लोकजीवन की आत्मीयता प्रमुख रही है। *गौहन्ना डॉट कॉम* नॉस्टैल्जिया का दस्तावेज़ है, जो केवल अतीत नहीं दिखाता, बल्कि हमें यह भी सोचने पर मजबूर करता है कि क्या आधुनिकता की दौड़ में हमने गाँव की आत्मा को कहीं पीछे तो नहीं छोड़ दिया।

हाल ही में इस पुस्तक का औपचारिक विमोचन कार्यक्रम भी आयोजित हुआ, जिसमें पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी जी, प्रोफेसर सुधा रानी पांडे जी, वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी और हिंदी के स्थापित रचनाकार अमित श्रीवास्तव जी सहित कई मूर्धन्य साहित्यकार उपस्थित थे। यह देखना सुखद था कि एक गाँव की स्मृतियों से उपजी यह रचना हिंदी साहित्य के इतने बड़े हस्ताक्षरों के बीच गंभीर चर्चा का विषय बनी। एक पाठक के रूप में मुझे भी वहाँ अपनी बात रखने का अवसर मिला – और कहना होगा कि *गौहन्ना डॉट कॉम* का अनुभव व्यक्तिगत स्तर पर भी उतना ही आत्मीय और आत्मग्रहणीय है जितना सामूहिक स्तर पर।

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