राजनीति

देवभूमि में पैर जमाने की कोशिश में ‘आप’

कांग्रेस-भाजपा के रूठे, छूटे और नेपथ्य में पड़े नेताओं पर है नजर

दिल्ली, पंजाब के बाद उत्तराखंड में पैठ बनाने की कोशिश

जनाधार वाले सामाजिक संगठनों में भी कर रही घुसपैठ
मिशन-2022 के लिए संगठन खड़ा करने में जुटी पार्टी

देहरादून। दिल्ली में जीत की हैट्रिक से आम आदमी पार्टी ने क्षेत्रीय विस्तार की दौड़ में उतरने को उत्तराखंड का ट्रेक पकड़ा है। सभी जिलों में पदाधिकारियों की नियुक्ति हो या संगठन में दूसरे दलों के तथाकथित दिग्गजों का समर्थन, हर पहलू पर पार्टी की स्थानीय इकाई ने पैर जमाना शुरू कर दिया है।

पार्टी सूत्रों का कहना है कि आप आला कमान का मानता है कि बूथ लेवल पर पार्टी को भाजपा-कांग्रेस से टकराने के लिए दिल्ली की तर्ज पर संगठन खड़ा करना होगा। इसके लिए खुद जनादेश वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं की खोज तो चल ही रही है। दोनों बड़े दलों से रूठे, छूटे और नेपथ्य में चल रहे नेताओं का हाथ थामने में भी आप को बुराई नहीं नजर नहीं आ रही है।

राजनीति के इसी सार्वभौमिक समीकरण को बिठाते हुए बीते एक माह में आप के प्रदेश नेतृत्व ने गढ़वाल से कुमाऊं तक कार्यक्रम भाजपा और कांग्रेस के कई नेताओं-कार्यकर्ताओं को खुद से जोड़ा है। पार्टी थिंक टैंक का मानना है कि दोनों ही राष्ट्रीय दलों पर वैचारिक या मुद्दों के आधार पर बढ़त के लिए काम करना ही पर्याप्त नहीं होगा। ऐसे में इन दलों में असंतुष्ट नेताओं को आप का मंच देकर जिलावार संगठन की सीढ़ियां जोड़ी जा सकती हैं। पार्टी के सामने ऐसा नहीं करने पर बतौर उदाहरण उक्रांद, उपपा आदि का भूत-वर्तमान और कमोबेश भविष्य दोहराने की नौबत आ सकती है। यही वजह है कि पार्टी ने प्रदेश मुखिया एसएस कलेर और प्रदेश प्रभारी दिल्ली के विधायक दिनेश मोहनिया को मिशन-20122 की कमान सौंप दी है।

दिल्ली की राह पर चल रही आप

पार्टी सूत्रों का कहना है कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी भाजपा और कांग्रेस का विकल्प तब बन पाई, जब दोनों ही बड़े दलों ने जनता का भरोसा खो दिया। उत्तराखंड इकाई को भी यहां भी इसी करिश्मे की उम्मीद है। बारी-बारी से सत्ता की सवारी कर चुकी भाजपा-कांग्रेस के काल की कमियों को पुरजोर ढंग से उठाकर जनता के बीच जाना फायदेमंद हो सकता है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि आपकी दिल्ली जीत में पहाड़ के वोटरों का भी अहम योगदान रहा है और पार्टी वैसी ही लहर लाने में कामयाब रही तो यहां भी भाजपा-कांग्रेस की हालत दिल्ली जैसी नहीं होगी, इसकी गारंटी कोई राजनीतिक पंडित नहीं दे सकता।

फिलहाल उत्तराखंड में नहीं है कोई चेहरा

ऐसा इसलिए क्योंकि आप का संगठन अभी पैर पर खड़ा नहीं हो सका है। किसी भी चुनाव में जीत दिलाने में संगठन का अहम रोल है। फिलहाल उत्तराखंड में आप के लिए यही पैर की बेड़ियां हैं। दूसरी कसर के तौर पर पार्टी के बाद प्रदेश स्तर पर कोई बड़ा नाम या स्टार प्रचारक की कमी है। दिल्ली में पहली बार जीत के बाद केजरीवाल आप का फेस बन गए। दूसरे और तीसरे चुनाव में जनता ने आपको उनके फेस पर ही अधिक वोट किए। मगर उत्तराखंड इकाई के पास फिलहाल सत्ताधारी के विकास की कमियां गिनाने या जनता के बीच सक्रियता बढ़ाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

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