सीखती व्यवस्था और नौकरियों की मृगतृष्णा में फंसा युवा

सीखती व्यवस्था और नौकरियों की मृगतृष्णा में फंसा युवा
रतन सिंह असवाल
हाल ही में राज्य के एक शीर्ष नौकरशाह का बयान सुनने को मिला कि परीक्षाओं के आयोजन को लेकर “हम अभी सीख रहे हैं” यह एक सामान्य प्रशासनिक बयान हो सकता था, लेकिन जब हम इसे राज्य गठन के 25 वर्षों के लंबे सफर के संदर्भ में देखते हैं, तो यह एक गहरी विडंबना को उजागर करता है। यह एक साधारण बयान नहीं, बल्कि उस व्यवस्था की स्वीकारोक्ति है जो चौथाई सदी के बाद भी अपनी कार्यप्रणाली में दक्षता हासिल करने के लिए संघर्ष कर रही है। यह स्थिति हमें राज्य की दशा और दिशा से जुड़े कुछ बुनियादी सवालों पर सोचने को मजबूर करती है।
सबसे बड़ा और ज्वलंत प्रश्न यह है कि आखिर राज्य का हर पढ़ा-लिखा नौजवान सरकारी या गैर-सरकारी नौकरियों के पीछे एक अंतहीन दौड़ में क्यों शामिल है? क्या हमारे नीति-नियंताओं को इस पलायनवादी मानसिकता के मूल कारणों का ज्ञान नहीं है? या यह जानते हुए भी वे एक ऐसा धरातलीय इकोसिस्टम बनाने में विफल रहे हैं, जहाँ युवा नौकरी मांगने वाले के बजाय नौकरी देने वाला बन सके? वास्तविकता यही प्रतीत होती है कि निर्वाचित प्रतिनिधियों के आश्वासनों और बाबुओं की फाइलों के बोझ तले राज्य की वास्तविक क्षमता कहीं दबी पड़ी है।
उत्तराखंड की भौगोलिक और जलवायु परिस्थितियाँ इसे बागवानी का एक प्रमुख केंद्र बनाने के लिए आदर्श हैं। यहाँ के सेब, कीवी, खुबानी, पुलम के साथ-साथ बेमौसमी सब्जियों और फूलों की खेती में अपार संभावनाएं हैं। पिछले 25 वर्षों में कागजों पर ‘एप्पल मिशन’ से लेकर ‘कीवी मिशन’ तक अनेक योजनाएं बनीं और प्रचारित हुईं। पॉलीहाउस और सब्सिडी की घोषणाएं भी हुईं। लेकिन सवाल यह है कि इसका धरातल पर कितना असर हुआ?
आज भी पहाड़ का एक आम किसान अपनी उपज को बाजार तक पहुंचाने, उसे बिचौलियों से बचाने और उसका सही मूल्य पाने के लिए संघर्ष कर रहा है। कोल्ड स्टोरेज और प्रोसेसिंग यूनिटों के अभाव में हजारों टन फल-सब्जियां हर साल बर्बाद हो जाती हैं। जब तक एक युवा को अपने ही खेत में बागवानी के माध्यम से एक सुरक्षित और सम्मानजनक भविष्य नहीं दिखेगा, तब तक वह देहरादून, दिल्ली और चंडीगढ़ की ओर नौकरी के लिए पलायन करता रहेगा।
दूसरी ओर हमारे पास पारंपरिक कौशल की समृद्ध विरासत है। काष्ठकला, ऐपण, रिंगाल से बने उत्पाद और हथकरघा की कला पीढ़ियों से चली आ रही है। इन्हें संरक्षित करने और बढ़ावा देने के लिए भी ‘कौशल विकास मिशन’ और ‘एक जिला, दो उत्पाद’ जैसी योजनाएं मौजूद हैं। लेकिन आज का युवा इस विरासत को अपनाने से क्यों कतरा रहा है?
इसका सीधा उत्तर है कि इन कौशलों से जुड़ा आर्थिक भविष्य अनिश्चित और असुरक्षित है। हमारे कारीगरों को आधुनिक डिजाइन, बेहतर तकनीक और सबसे महत्वपूर्ण, एक बड़ा बाजार उपलब्ध कराने में हमारी व्यवस्था विफल रही है। जब तक हमारे पारंपरिक उत्पाद कुछ सरकारी शोरूमों और मेलों तक सीमित रहेंगे और कारीगरों को उनकी मेहनत का सही मूल्य नहीं मिलेगा, तब तक यह क्षेत्र केवल एक ‘विरासत’ बनकर रह जाएगा, आजीविका का सशक्त माध्यम नहीं बन पाएगा।
अब समय आ गया है कि राज्य के नीति-नियंता कागजी आंकड़ों और योजनाओं के सफल क्रियान्वयन के दावों से आगे बढ़ें। विकास का असली पैमाना यह नहीं है कि कितनी फाइलें चलीं या कितनी सब्सिडी बंटी, बल्कि यह है कि राज्य के कितने युवाओं ने पलायन करने के बजाय अपने गांव में रुककर स्वरोजगार को चुना !
जब तक बागवानी और पारंपरिक कौशल को केवल एक वैकल्पिक आजीविका नहीं, बल्कि एक मुख्यधारा का आकर्षक विकल्प नहीं बनाया जाएगा, तब तक हमारे युवा नौकरियों की मृगतृष्णा में भटकते रहेंगे। यदि विकास का मौजूदा मॉडल सिर्फ सत्ता और उसके समीकरणों को साधने तक ही सीमित है, तो हमें वाकई आने वाली पीढ़ी के उज्ज्वल भविष्य के लिए केवल कामना ही करनी पड़ेगी। असली बदलाव नीतियों में नहीं, बल्कि नीयत और उनके धरातलीय क्रियान्वयन में दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाने से आएगा।