पहाड़ी बनाम मैदानी, बहस असली मुद्दों से ध्यान भटकाने का कुचक्र है क्या ?

पहाड़ी बनाम मैदानी
बहस असली मुद्दों से ध्यान भटकाने का कुचक्र है क्या ?
उत्तराखंड।
मैं एक छोटा-सा इंसान हूँ,
सोच बहुत बड़ी रखता हूँ। मेरा सौभाग्य रहा कि उत्तराखंड राज्य आंदोलन में मैं अपनी भूमिका निभा सका। जब राज्य के गठन की माँग उठी थी, तो यह केवल एक प्रशासनिक सीमा रेखा खींचने का आंदोलन नहीं था। यह पहाड़ों की आत्मा को पहचान दिलाने की पुकार थी। आज जब उस ऐतिहासिक क्षण को पच्चीस साल पूरे हो गए हैं, तो मन में यह सवाल उभरता है,क्या जिन सवालों के उत्तर खोजने के लिए राज्य बना, वे आज भी अनुत्तरित हैं? और क्या “पहाड़ी बनाम मैदानी” जैसी बहसें उन सच्चे सवालों से ध्यान भटकाने का एक कुचक्र हैं ?
उत्तराखंड के गठन का सपना एक समृद्ध, स्वावलंबी और पहाड़ों के अनुरूप विकासशील राज्य का था। आज जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं, तो पाते हैं कि उस सपने के कई हिस्से अभी अधूरे हैं। सैकड़ों गाँव खाली हो चुके हैं। युवा रोज़गार की तलाश में मैदानों या महानगरों की ओर पलायन कर रहें हैं। जिन गाँवों से कभी आंदोलनकारी निकले थे वे अब सुनसान हो चले हैं ।
हाल के वर्षों में “पहाड़ी बनाम मैदानी” की बहस फिर से उठने लगी है। कभी यह आरक्षण के संदर्भ में आता है, कभी प्रशासनिक नियुक्तियों में, तो कभी राजधानी के स्थान को लेकर। यह बहस संवेदनशील है, लेकिन यह सवाल करना जरूरी है कि कहीं यह एक ऐसा कुचक्र तो नहीं, जिससे असली मुद्दों पर से ध्यान हटाया जा रहा हो ।
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र आज गंभीर संकट में हैं। स्कूल बंद हो रहे हैं, स्वास्थ्य सेवाएँ नदारद हैं, सड़कें अधूरी हैं और रोजगार के अवसर नगण्य हैं। ऐसे में लोगों का पलायन कोई विकल्प नहीं, मजबूरी बन चुका है। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि जिन पहाड़ों को बचाने के लिए राज्य माँगा गया, वही आज सबसे उपेक्षित हैं ।