भू-कानून बदलाव तक पहुंचा लैंड जिहाद का जिन्न

सरकार गंभीर, अध्ययन को गठित की एक कमेटी
देहरादून। तीन महीने बाद उत्तराखंड विधानसभा के चुनाव होने हैं। इसी चुनावी सरगर्मी के बीच उत्तराखंड में एक नया जुमला उछाला गया है लैंड ज़िहाद। मुद्दा उछालने वालों का मतलब एक खास तबके द्वारा पहाड़ पर ज़मीन ख़रीदने से है। यूं तो वर्ष 2000 में राज्य गठन के समय से ही बाहर के लोगों द्वारा उत्तराखंड में ज़मीन खरीदने का मुद्दा रहा है। पर इधर लोगों को लगने लगा कि उत्तराखंड से स्थानीय लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। भुतहा गांव बढ़ते जा रहे हैं। बाहर के लोग यहां ज़मीन खरीदने के धंधे में लगे हैं। दरअसल, उन्हें दिक्कत खास समुदाय के लोगों द्वारा पहाड़ में पसरने से है। स्थानीय लोगों का मानना है कि इससे उनकी संस्कृति का संतुलन बिगड़ रहा है। आमतौर पर शांत रहने वाले पहाड़ों पर अपराध बढ़ रहे हैं। सरकार भी इस मामले में चिंतित है और अफसरों को सतर्कता बरतने के निर्देश दिए गए हैं।
दरअसल, इस मामले की शुरुआत भाजपा नेता अजेंद्र अजय की ओर से ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखे एक पत्र से हुई। अजेंद्र ने अपने इस खत में लिखा कि पर्वतीय क्षेत्र को ‘विशेष क्षेत्र अधिसूचित’ कर एक खास समुदाय के धर्मस्थलों के निर्माण पर रोक लगाई जाए और भूमि के क्रय विक्रय के लिए विशेष प्रावधान किया जाए। भाजपा नेता इस प्रकरण को लव जिहाद की तरह लैंड जिहाद कहते हैं। अजय के इस खत को गंभीरता से लेते हुए मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने सभी जिलों के डीएम और एसएसपी को एहतियाती कदम उठाने के लिए लिखा है। सरकार का कहना है कि शिकायत मिल रही है कि राज्य में कुछ इस प्रकार के लोग आकर बस गए हैं जिससे डेमोग्राफिक परिवर्तन देखने को मिल रहा है, जिसकी जांच होनी चाहिए।
सरकार ने इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए भू-कानून में संशोधन के लिए एक समिति का गठन कर दिया गया है। पूर्व मुख्य सचिव सुभाष कुमार को इसका अध्यक्ष बनाया गया है। साथ ही पूर्व आईएएस अरुण ढौंडियाल, डीएस गर्ब्याल के साथ ही भाजपा नेता अजय को इस समिति का सदस्य बनाया गया है। यह समिति सभी पक्षों की सुनवाई कर अपनी रिपोर्ट राज्य सरकार को सुपुर्द करेगी।
समिति के सदस्य और इस लैंड जिहाद को मुद्दा बनाने वाले भाजपा नेता अजय अजेंद्र ने आउटलुक से कहा कि तमाम ऐसे मामले सामने आए हैं, जिनमें अनुसूचित जाति के गरीबों की जमीने एक समुदाय विशेष के लोगों ने बेहद कम पैसों में खरीदी हैं। उत्तराखंड में ऐसी ही जमीनों पर खास समुदाय के लोगों को धार्मिक स्थल तेजी से बढ़ रहे हैं। अजय ने बताया कि समिति को विभिन्न लोगों और संस्थाओं ने 160 सुझाव दिए हैं। इससे पहले कई स्थानों पर जनसुनवाई होगी और सियासी दलों से भी बात की जाएगी। इनका अध्ययन करने के बाद समिति सरकार को अपनी रिपोर्ट देगी।
इधर, कांग्रेस नेता हरीश रावत इस प्रकरण को सियासी चश्मे से देख रहे हैं। हरीश रावत कह रहे हैं कि जनसंख्या वृद्धि को एक समुदाय विशेष से जोड़ना और उसी को टारगेट करना गलत है। जनसंख्या वृद्धि का क्षेत्र के लिहाज से अध्ययन जरूरी है। जनसंख्या वृद्धि गरीब तबके में ज्यादा है और इस वर्ग में सभी जाति और धर्म के लोग हैं। सरकार इस पर नियंत्रण के लिए उचित कदम उठाए पर समुदाय विशेष को टारगेट करके ऱाजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश चिंताजननक है।
इस लैंड जिहाद की बात के बीच ही उत्तराखंड में एक बार फिर भूमि कानून का मुद्दा जोर पकड़ने लगा है। इस मुद्दे पर खामोश रहने वाले सियासी दल एकाएक मुखर हो चले हैं। जगह-जगह आंदोलन की सुगबुगाहट है। आंदोलनकारियों का तर्क है अगर यह कानून बना रहा तो बाहरी लोगों का प्रदेश की जमीनों पर कब्जा हो जाएगा। दूसरा पक्ष यह भी है कि अपेक्षाकृत पिछड़े प्रदेश उत्तराखंड में पूंजी निवेश को आकर्षित करने के लिए, आर्थिक जरूरत और तकाजों पर अपनी जमीन को मनचाहे दाम पर मनचाहे शख्स को बेचने की आजादी की वकालत भी एक वर्ग करता है। भूमि कानून के विरोध के समय को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं। क्योंकि प्रदेश में विधानसभा चुनावों में ज्यादा वक्त नहीं रह गया है।
मौजूदा भू-कानून का विरोध करने वालों का तर्क है कि प्रदेश में ‘उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि व्यवस्था सुधार अधिनियम 1950 (अनुकलन एवं उपरांतरण आदेश 2001) (संशोधन) अध्यादेश-2018’ के जरिये जमीन की खरीद फरोख्त के नियमों को इतना लचीला कर दिया गया कि अब कोई भी पूंजीपति प्रदेश में कितनी भी जमीन खरीद सकता है। इसमें में जोड़ी गई दो धाराओं को लेकर विरोध हो रहा है। इस कानून की धारा 143 (क) में यह प्रावधान है पहाड़ में उद्योग लगाने के लिए भूमिधर स्वयं भूमि बेचे या उससे कोई भूमि खरीदे तो भूमि को अकृषि कराने के लिए अलग से कोई प्रक्रिया नहीं अपनानी होगी। औद्योगिक प्रयोजन से भूमि खरीदने पर भूमि का स्वत: भू उपयोग बदल जाएगा। अगर ऐसा होता है तो कानून के लचीले बनने से पहाड़ में खेती की जमीन कम हो जाएगी।
अधिनियम की धारा-154 के अनुसार कोई भी किसान 12.5 एकड़ यानी 260 नाली जमीन का मालिक ही हो सकता था। इससे ज्यादा जमीन पर सीलिंग थी, लेकिन त्रिवेंद्र सरकार ने अधिनियम की धारा 154 (4) (3) (क) में बदलाव कर उपधारा (2) जोड़ कर न केवल 12.5 एकड़ की बाध्यता को समाप्त कर दिया। बल्कि किसान होने की अनिवार्यता भी खत्म कर दी। इसी कानून की धारा-156 में संशोधन कर तीस साल के लिए लीज पर जमीन देने का प्रावधान भी कर दिया। ऐसा करने वाला उत्तराखंड देश का एकमात्र राज्य है। चिंता जताई जा रही है कि औद्योगिक निवेश के नाम पर पहाड़ में भूमि खरीदने का दरवाजा खोल दिया गया। इससे पहाड़ में जमीन नहीं बचेगी और लोग पलायन को मजबूर हो जाएंगे।
नौ नवंबर 2000 को उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद से ही भूमि खरीदने-बेचने और सरकारी भूमि की बंदरबांट के खेल शुरू हुए और इनके विरोध में आवाजें उठीं। राज्य की पहली अंतरिम सरकार की कमान मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी के हाथों में आई। आरोप है कि स्वामी सरकार ने शिक्षण, सामाजिक एवं अन्य संस्थानों और संस्थाओं को कौड़ियों के भाव बेशकीमती जमीन बांट दीं। राज्य के बाहर से आए पूंजीपतियों ने भी जमीन खरीदीं। उत्तराखंड में भूमि खरीद-फरोख्त कारोबार बन गया। वर्ष 2002 के बाद एनडी तिवारी सरकार ने राज्य से बाहर के व्यक्तियों के लिए भूमि खरीद की पहली बार सीमा तय की। उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम में यह प्रावधान किया कि बाहरी व्यक्ति राज्य में 500 वर्ग मीटर से अधिक भूमि नहीं खरीद सकेगा। हालांकि, राज्य आंदोलन से जुड़ा एक बड़ा वर्ग इसके भी विरोध में था। वर्ष 2007 में राज्य में भाजपा की सरकार बनीं। तत्कालीन मुख्यमंत्री जनरल (सेनि.) बीसी खंडूड़ी बाहरी व्यक्तियों के लिए भूमि खरीदने की सीमा को घटाकर 250 वर्ग मीटर कर दिया। भूमि खरीद का यह प्रावधान भी घर बनाने के लिए किया गया। वर्ष 2018 में तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने पर्वतीय क्षेत्रों में औद्योगिक निवेश को बढ़ावा देने के मकसद से भू-कानून में संशोधन कराया। इसके तहत चिन्हित सेक्टर में बाहरी राज्य के उद्यमी के लिए 12.50 एकड़ से अधिक भूमि खरीद का रास्ता खोल दिया गया। साथ ही खरीदी गई कृषि भूमि को अकृषि करने की छूट दे दी गई। अब चुनावी साल में कानून में संशोधन का विरोध हो रहा है।
उत्तराखंड में कृषि भूमि का रकबा निरंतर घट रहा है। राज्य में कृषि भूमि का रकबा अब केवल 9 प्रतिशत के आसपास रह गया है। इसका मतलब साफ है, उत्तराखंड की सरकार की चिंता में पर्वतीय कृषि कोई मुद्दा न पहले था और न अब है। जब दूसरे हिमालयी राज्यों में कानून हैं तो फिर उत्तराखंड में क्यों नहीं? राज्य में एक सशक्त कानून लाना चाहिए। बादल फटना, भू स्खलन, अतिवृष्टि, ओलावृष्टि आदि तमाम प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज़ से पहाड़ अत्यंत संवेदनशील है। इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता है। उत्तराखंड को अन्य पर्वतीय राज्यों की तरह एक सशक्त भू-कानून की आवश्यकता इसलिए भी है। उत्तराखंड की बसावट की बात करें तो नदी घाटियों को छोड़ अधिकतर बसावट भूस्खलन जोन के ऊपर बसी हुई दिखती है। हर वर्ष सरकार को कुछ गांवों को विस्थापित करना पड़ता है। लेकिन विस्थापन के लिए सरकार हमेशा भूमि का रोना रोती है। जहां कुछ भूमि बची भी है, वह ढालदार होने के कारण बिना दीवारों के उसको समतल नहीं किया जा सकता है। लेकिन इस काम के लिए बजट नहीं होता। इन्ही कारणों से विस्थापन नहीं हो पा रहा है। स्थानीय लोग चाहते हैं कि पड़ोसी राज्य हिमाचल की तरह उत्तराखंड का भी भू कानून सख्त हो। इसी वजह से कानून में संशोधन को लेकर मांग उठ रही है