कोरोना :एक मुर्दे का सफरनामा
प्रमोद शाह की फेसबुक वॉल से
मौत अंतिम सत्य है। मरना सब को है। लेकिन मुझे मरे हुए आज 10 दिन हो गए। मैंने हमेशा से मरते हुए लोगों को अपने परिजनों के साथ चिता में जलते हुए अथवा सुपुर्द-ए-खाक होते देखा है.
लेकिन मुझे ऐसी मौत क्यों मिली कि मैं एक सफेद ट्रेक सूट (पीपीई किट) में लिपटा,एक बड़े हॉल में,ऐसे ही अपने कुछ साथियों के साथ लेटा हूं। जहाँ हम सब अपनों का ही इंतजार कर रहे हैं। दिन में दर्जनों बार मोर्चरी का दरवाजा खुलता है। कई बार सफेद ट्रक सूट में लिपटे हमारे जैसे दो -चार मेहमान अंदर आते हैं और कभी एक-दो बाहर चले जाते हैं। लेकिन मेरा नाम पता कोई नहीं पूछता फिर दरवाजा बंद हो जाता, हर बार मैं गहरी निराशा में डूब जाता हूं। आज सुबह-सुबह ही फिर कुछ लोग अंदर आए। आवाज आती है। हां वही दाहिनी से चौथा। सोचता हूं कोई मेरा अपना आ गया,लेकिन नहीं यह पुकार मेरे लिए नहीं थी। मेरा नंबर तो तीसरा था। तभी एक जमांदार ने मुझे छुआ,उस स्पर्श से मेरा चेहरा खिल गया,तभी एक कड़कदार आवाज ने उसे टोका। अरे साss यह नहीं। यह तीन-चार रईसजादे हैं। इनके बैग पर लाल निशान लगा दो, इनके तीमारदार न तो आएंगे, और न हमें बताएंगे कि इस मिट्टी का हमें करना क्या है ।
जिंदगी की कहानी फ्लैशबैक में चल पड़ी…वह बेटा राहुल जिसे मैंने बहुत मुश्किल दिनों में जीवन की तपती धूप में, फूलों की तरह पाला था। मैं उन दिनों साइकिल से गली -गली फेरी लगाने वाला एक छोटा दुकानदार ही तो था। तब मैंने राहुल को शहर के सबसे महंगे कान्वेंट स्कूल में दाखिला दिलवाया था।
कान्वेंट की शान और अंग्रेज़ी की गिटिर पिटर के मोह पाश में ,मैं एसा फंसा था कि बेटे के इंटर पहुंचते-पहुंचते मैं 40 की उम्र में ही बूढ़ा दिखने लगा था। बेटे के पीछे -पीछे ही बेटी का सरकारी स्कूल में हाई स्कूल पास हो जाना। उस वक्त हाईस्कूल पास करना किसी लड़की को क्या, लड़कों के लिए भी इतिहास बनाने जैसा था ।
वक्त की रफ्तार में मैं बहुत तेजी से बह रहा था। बेटा
इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला ले चुका था। बेटी इंटरमीडिएट कर इलाके के नामी थोकदार साहब के घर ब्याही गई। उनका खूब बढ़िया नाम चल रहा था। बेटी ससुराल से जब भी घर आती ड्राइवर लेकर बड़ी-बड़ी गाड़ियां बदल कर लाती थी।
बेटा राहुल बंगलौर में मल्टीनेशनल कंपनी में बड़ा अधिकारी था। 60 की उम्र आते आते मुझे बड़ा आदमी बनने का शौक जागने लगा। मैंने पिथौरागढ़ में काम धंधा बिस्किट फैक्ट्री चालू रखते हुए, हल्द्वानी में मकान बना लिया। यहां मैं अपने लोगों से दूर था, लेकिन इस दूरी से मैं अपनों को अपना बड़प्पन दिखा सकता था। वह भी मैंने खूब दिखाया ,बेटा बहू सब हल्द्वानी आते ही खूब इतराने लगे थे ।
बड़े आदमी बनने की धुन में घर में दो महरिया काम को आती। घर के आंगन में छोटे से लान के लिए माली था,धोबी भी रोज कपड़े धोकर प्रेस करके दे जाता था।
मेरे रहन शहन और शानो -शौकत से यह अनुमान लगा पाना कठिन था,कि मैं कभी गाँव का मेहनत कश दौलत सिंह था।
तभी 2020 में एक अनजान वायरस ने दुनिया को खतरे में डाल दिया, महीनों शहर की चहल-पहल बंद रही। तब किसी तरह मैंने अपने और अपने प्राण से प्यारे परिवार को बचा लिया था। अप्रैल 2021 में कोरोना की दूसरी लहर आई। इस बार मैं इसकी चपेट में आ गया, मुझे अपने परिवार ,नाती -पोतों और पैसों पर बहुत गुमान था। लगा कि मेरे लिए यह कोरोना कुछ नहीं । शुरुआती 4 दिन मेरे नाती- पोतों ने मुझे घर में अलग बंद रखा , फिर डरते हुए एम्बुलेंस से अस्पताल सुशीला तिवारी छुड़वा दिया। मेरा दम लगातार घुट रहा था। इसलिए नहीं कि आक्सीजन की कमी थी। बल्कि मेरा दम इसलिए घुट रहा था कि मैंने जिंदगी भर जिन सपनों को देखा ,सपनों के जिन पौधों को फल की उम्मीद से अपने पसीने की बूँद -बूँद से हरा किया ,वह फूल जिन पर मैंने हमेशा अपनी छाया रखी ,वह मुझे अस्पताल में यूँ अकेले छोड़कर नदारद हो गए थे। मेरा बेटा बैंगलोर से मेरी बीमारी की खबर सुन आया या नहीं, मुझे पता तक नहीं चला ।
डॉक्टर और नर्स ही आखिरी दिनों में मेरे साथी हो गए। घर वालों के बारे में पूछता तो डाक्टर कहता “बाबा तसल्ली रखो” यही दुनिया का दस्तूर है।
मेरी नाक में ऑक्सीजन का पाइप लगा था ,लेकिन मेरे कानों में गूंजते डाक्टर के शब्द “तसल्ली रखो ,यही दुनिया का दस्तूर है हथौड़े की सी चोट कर रहे थे. जिंदगी भर हर मुश्किल हालात में मुट्ठियां बांधने का साहस, अब साथ छोड़ रहा था। मेरी सांसें टूट रही थी। मैं जिंदगी के लिए लड़ना नहीं चाह रहा था, मेरी भीतर का आक्सीजन सिलेंडर खत्म हो रहा था। कहने को मेरी मौत का कारण ऑक्सीजन का लेबल गिरना बन रहा था ,लेकिन मैं जानता था सही में कारण मेरे अपनों की बेरुखी, मेरे सपनों का बिखर जाना था..।
मैं पूरी रात अपने जीवन की कहानी को फ्लैश बैक में देखता रहा, कहां मुझसे चूक हुई। सुबह मैंने दम तोड़ दिया। सिस्टर ने बेड चार्ट में दर्ज मोबाइल नंबर पर मेरी मौत की खबर पहुँचा दी गई। वहां से एक बुझी हुई आवाज में मेरे बेटे ने कहा अच्छा ……। फिर फोन कट गया। अस्पताल से दोबारा फोन मिलाया गया इस बार भी बेटे ने फोन उठाया लेकिन मिजाज बदला हुआ था, उसने कहा कोरोना का कर्फ्यू चल रहा है, मैं अपने बच्चों को खतरे में डालकर कैसे अस्पताल आ सकता हूँ ।मैंने सुना है शवों के दाह संस्कार का इंतजाम सरकार ने भी किया है, तो फिर तुम बार-बार क्यों घर में फोन कर रहे हो डॉक्टर साहब…। सरकारी व्यवस्था से इंतजाम कर दें।.
थक हार कर शाम को मुझे यहां मोर्चरी के हॉल में बंद कर दिया गया, मेरी ही तरह है कुछ और साथी भी गमजदा वहां पहले से लेटे थे। लेकिन कुछ खुशनसीब भी थे, जिनके घर वाले उन्हें लेने आते, खुशी- खुशी वह अपनों के साथ चले जाते… मुझे अभी अंदर से यकीन था, कि मेरा बेटा ऐसा नहीं कर सकता मेरे कानों ने कुछ गलत सुना होगा ,वह किसी गहरी मुसीबत में होगा ,फोन की बैटरी खराब हो गई होगी ,फिर भला वह फोन स्विच ऑफ क्यों करता.. बार-बार मैं खुद को झूठी तसल्ली दे रहा था।
बढ़ते हुए दिनों के साथ उसकी आस टूट रही थी। आज 12 दिनों बाद सेठ दौलत सिंह को लावारिस मान कुछ अनजान अपनों ने मुखाग्नि दी। मैं जलकर भी जिंदा था। कानों में ईजा (माँ )संदेश गूंज रहा था। च्यला! भल करिए, करि सब यईं आघिल उं ” (बेटा भला करना, करा हुआ यहीं आगे आता है) । मां के यह शब्द लगातार मेरे कानों में गूँज रहे थे। मैं सोच रहा था मुझसे कहाँ गलती हुई ? मैं कहां चूक गया ?