वनाग्नि, मानव-वन्य जीव संघर्ष और पलायन का गहरा ताल्लुक

धधक रहे जंगल और सो रहा जंगलात महकमा
पर्वतीय ग्रामीण अंचलों में गहराएगा पलायन संकट
तेजी से बढ़ रहा मानव-वन्यजीव संघर्ष का खतरा
मूल में है वन संरक्षण अधिनियम के कई प्रावधान
रतन सिंह असवाल

उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में जंगलों में आग धधक रही है और वन्यजीव जो स्वभावतः अग्नि से बहुत ही खौफ खाते हैं, वे अपनी जान बचाने के डर से मानव बस्तियों का रूख कर रहे हैं। जंगली जानवरों का मानव बस्तियों की ओर आ जाना और भूख-प्यास के लिए लोगों के घरों में घात लगा कर हमला करने से मानव-वन्यजीव संघर्ष का खतरा और भी बढ़ रहा है। जल्द ही इस समस्या पर काबू न पाया गया तो इनका परिणाम पर्वतीय ग्रामीण अंचलों से पलायन के रूप में देखने को मिलना तय है।

वन्यजीवों का मानव वसासतों तक डेरा डालना कोई अच्छा संकेत नहीं है। चस्पा तसवीर दुर्लभ प्रजाति की हिमालयी लोमड़ी की है। यह मानव बस्ती में आकर पेट की आग बुझाने की खातिर ऐसा व्यवहार कर रही है जैसे कि यह पालतू हो। वनाग्नि पर बिना समय गंवाए यदि कोई ठोस एवं प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो ऐसे दुर्लभ वन्यजीवों का ग्रामीण क्षेत्रों में और दखल बढ़ेगा जिसके कारण दोनो के बीच में आपसी संघर्ष को रोकना जिम्मेदार महकमों के लिए काफी मुश्किल होगा। आने वाले समय में इसका नतीजा पर्वतीय क्षेत्रों के ग्रामीण और ज्यादा पलायन को मजबूर होने के रूप में सामने होगा। यह कटुसत्य किसी से छुपा भी तो नही है कि सामरिक महत्व के लिए हिमालयी राज्यों से होने वाला मानव पलायन देश हित में नही माना जा सकता है।

दरअसल, इस पूरे घटनाक्रम की जड़ में वन संरक्षण अधिनियम 1980 ही है। इस एक्ट के जरिए पर्वतीय ग्रामीणो के हक-हकूक छीन लिए गए हैं। इस एक्ट के लागू होने से पहले ग्रामीण आरक्षित वन क्षेत्र और निजी जंगलों के बीच की असिंचित जमीन पर खेती करते हैं। इसकी उपज से ही तमाम वन्यजीव अपना भोजन भी लेते थे। एक्ट लागू होने के बाद किसानों ने इस असिंचित जमीन की चिंता ही छोड़ दी और इस जमीन पर भी जंगल विकसित होने दिया। इसकी वजह यह रही कि ग्रामीणों को अपनी तमाम जरूरतों के लिए लकड़ी की जरूरत होती थी और नए कानून की वजह से वे जंगल से लकड़ी नहीं ले सकते हैं। ऐसे में इसी असिंचित जमीन पर उपजाए गए पेड़ों से ही किसान अपना काम चला रहे हैं।
वन अधिनियम से पूर्व ग्रामीण जनता एवम वनों का अटूट रिश्ता था दोनों परस्पर एक दूसरे का पूरक थे। ग्रामीणों की आजीविका, सुरक्षा एवम संसाधनों के लिए वनों पर ही पूर्णतः निर्भर रहते थे। वन अधिनियम लागू होते ही वन विभाग और इस अधिनियम के प्रशंसक वर्ग ने छोटी छोटी बातों को इतना तूल दिया कि बेचारे ग्रामीण जनता को आखिर कार वनों से दूर होना पड़ा। इसी का नतीजा है कि एक तो ग्रामीण वनाग्नि के प्रति बेहरवाह हो गए और वन्यजीवों को भोजन मिलना भी बंद हो गया। मेरा ये प्रबल मानना है कि वन अधिनियम लागू होने के बाद से ही ग्रामीणों में आजीविका का संकट उत्पन्न हो जाने के कारण ही पलायन करने में मजबूर हुए है।
वन अधिनियम के लागू हुए आज इतने वर्ष बीत चुके हैं किंतु मुझे नही लगता कि वन विभाग ने वनों के विकास एवं ग्रामीणों की समस्याओं को लेकर कोई महत्वपूर्ण कार्य किया हो, सिवाय इसके कि अधिनियम के नाम पर ग्रामीणों से असिंचित भूमि जो अब वन का स्वरूप ले चुकी है उसे डीम्ड फारेस्ट मान खाली करवाना। आज भी कई जगहों पर राजस्व विभाग व वन विभाग के सीमा विवाद आम बात है। सार यह है कि अगर ग्रामीणों के हक-हकूक बहाल हो जाएं तो वनाग्नि पर काफी हद तक नियंत्रण पाया जा सकता है। जरूरत इस बात की भी है कि सरकार के स्तर से हर गांव में कम से कम पांच युवाओं को आपदा से लड़ने का प्रशिक्षण अनिवार्य रूप से दे।