एक्सक्लुसिव

जल, जंगल व जमीन से पहाड़ की एंथ्रोपोलॉजी

पलायन एक टीम के संयोजक रतन सिंह असवाल

पलायन एक टीम के संयोजक रतन सिंह असवाल लंबे समय से पहाड़ से हो रहे लगातार पलायन का अध्ययन कर रहे है। उत्तराखंड के इस गंभीर मुद्दे पर न्य़ूज वेट ने उनसे बात की। असवाल ने बेबाकी से अपनी बात रखी।

पलायन उत्तराखंड की कितनी बड़ी समस्या है।

पृथक उत्तराखंड राज्य गठन के बाद प्रदेश के विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले पहाड़ी इलाके से बड़े पैमाने पर तराई और मैदानों की ओर पलायन हुआ। सरकारों ने पहाड़ की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के बावजूद नागरिक सुविधाओं के लिए आधारभूत ढांचे जैसे कि सड़क, बिजली व पानी की व्यवस्था तो की। लेकिन फिर भी मैदानों की ओर उतरते पहाड़ियों की संख्या में कमी न आना अनेक सवाल उठाता है।

इसकी असल वजह क्या है।

सरकार और इसका सिस्टम पहाड़ में स्थानीय स्तर पर ऐसे आजीविका के साधन तैयार नही कर पाए, जिससे स्थानीय युवा अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा कर पाते। राज्य गठन के 18 वर्ष बाद जो तस्वीर उत्तराखंड के पहाड़ की उभर के आयी है वह अविभाजित उत्तर प्रदेश के दौर से भी निराशाजनक है। दुनिया के अनेकों ऐसे देश हैं जिनका समूचा भूभाग पहाड़ ही है किंतु इसके बावजूद उन मुल्कों की सरकारों ने अनुसंधान, तकनीकी व इंजीनियरिंग की मदद से उन पहाड़ों को यहां के मैदानों से सुगम और मानवीय परिस्थितियों के अनुरूप ढाल दिया इसका उदाहरण पड़ोसी  राज्य हिमाचल है। हमारी सरकारों ने लगातार जारी अनुसंधानों, तकनीकी व इंजिनीरिंग का समुचित लाभ नहीं लिया जिसके नतीजे में हमारे पहाड़ लगातार दुर्गम होते गए। राज्य के अंदर ही पहाड़ी व मैदानी भूभाग में सुगमताओं व आर्थिकी के साधनों के मध्य लगातार चौड़ी होती जा रही खाई के फलस्वरूप पहाड़ से लोगों का मैदानों की ओर उतरना जारी है। 

ऐसे में आपको क्या लगता है कि किन पर फोकस करना चाहिए।

हमारा मानना है कि पहाड़ और पहाड़ की पारिस्थितिकी के संदर्भ में हो रहे तमाम रिसर्च के केंद्र में इकोसिस्टम के साथ मानव जीवन के सहज अस्तित्व का सवाल अवश्य हो। देशभर में वन, पर्यावरण व पारिस्थितिकी के क्षेत्र में अध्ययन व अनुसंधान कर रहे सभी संस्थानों को पारस्परिक समन्वय के साथ शोध करने होंगे, इसके लिए मानवविज्ञान के विशेषज्ञों से भी व्यापक संवाद जरूरी है। उत्तराखंड के पहाड़ की एंथ्रोपोलॉजी ही जल, जंगल व जमीन से शुरू होती है। इनके साथ मानव जीवन के पारस्परिक रिश्ते को मजबूत किए बिना पहाड़ के अस्तित्व की उम्मीद नही की जानी चाहिए। पहाड़ में प्रकृति व मानव के सहअस्तित्व की सैकड़ों वर्ष पुरानी परंपरा को जीवित रखने के लिए हमारे ख्यातिलब्ध संस्थानों व उनके अनुभवी विद्वानों को शिद्दत के साथ कार्य करना होगा। 

पर्यावरण संरक्षण की दिशा में क्या काम हो रहा है।

इधर बीते कुछ वर्षों में पर्यावरण, वन्य जीव व पारिस्थितिकी तन्त्र को लेकर एक “हाइपर अवेयरनेस” का दौर चल रहा है। पर्यावरण के नाम पर चल रहे अनेक वैश्विक व देशी गैर सरकारी संगठनों ने ऐसा दुष्प्रचार किया कि मानो उत्तराखंड के पहाड़ में स्थानीय निवासी वहां के जल, जंगल व जमीन के दुश्मन बन बैठे हैं। सरकारें भी ग्लोबली मजबूत इन संगठनों के दबाव में आ गईं और कुछ ऐसे कानून बना दिए गए जिन्होंने उत्तराखंड के पहाड़ के निवासियों को इकोसिस्टम से ही अलग कर दिया। गांवों में आधारभूत ढांचे के विकास की अनेक योजनाओं पर रोक लगा दी गयी, आर्थिकी के विकास के अवसरों को रोक दिया गया, नतीजतन स्थानीय लोगों का अपनी ही जन्मभूमि से मोहभंग हो गया और साल दर साल पलायन की दर बढ़ती गयी। 

स्थानीय निवासियों की मदद कैसे ली जाए।

हमारा मानना है कि उत्तराखंड के पहाड़ के पर्यावरण और पारिस्थितिकी तन्त्र को स्थानीय निवासियों से अलग कर नहीं देखा जा सकता। कई सौ वर्षों तक इन पहाड़ों पर बिना किसी कानूनों के मनुष्य, वन व वन्य जीव के बीच सहअस्तित्व का सिद्धांत फलता फूलता रहा। इस लम्बी अवधि में खेती के साथ वन्य सम्पदा भी बराबर अस्तित्व में रही। लेकिन वर्तमान में पर्यावरण और इकोसिस्टम को बचाने के शोर के बीच स्थानीय लोगों की आवाज दब गई है। यही कारण है कि लोग लगातार पहाड़ों से पलायन को मजबूर हैं।

क्या पलायन में आपदा का भी कोई रोल है।

एक और अहम सवाल हाल के वर्षों में प्राकृतिक आपदा के भी उठ खड़ा हुआ है, लगातार क्लाउड बर्स्ट व लैंडस्लाइड की घटनाओं से पहाड़ के लोग भयभीत हैं। चमोली, उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग व पिथौरागढ़ जैसे जनपदों से पलायन का एक प्रमुख कारण आए दिन आने वाली आपदाएं भी हैं। पर्यावरण संरक्षण के लिए लगी अनेक बंदिशों के बावजूद भी इन तरह की आपदाएं हमारे अनुसंधान और तकनीकी के साथ इंजीनियरिंग पर भी सवाल उठाती हैं।  हमारा स्पष्ट मत है कि भू विज्ञान, सीस्मोलॉजि, एंथ्रोपोलॉजी व इकोसिस्टम के लिए काम करने वाले संस्थान स्थानीय स्तर पर अनुसंधान के ऐसा ब्लूप्रिंट तैयार करें जो एकतरफा न हो, जिसके केंद्र में स्थानीय निवासी हों और जिसमे प्रकृति एवम मानव एक दूसरे के पूरक हों, कुल मिलाकर जो व्यवहारिक हो। जिस तन्त्र में इकोसिस्टम के साथ आजीविका के साधनों की पुख्ता व्यवस्था भी हो।

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