उत्तराखंड

दोष युवाओं का नहीं, तंत्र का है !

दोष युवाओं का नहीं, तंत्र का है !

उत्तराखंड के नीति-नियंताओं के शब्दकोश में युवाओं के रोज़गार की मांग का एक बना-बनाया उत्तर है, हर किसी को सरकारी नौकरी देना असंभव है। यह एक अधूरा सच है, जो बड़ी चतुराई से व्यवस्था की खामियों पर पर्दा डालता है।

असल यक्ष प्रश्न यह नहीं है कि हर युवा सरकारी नौकरी क्यों चाहता है, बल्कि यह है कि जब वह स्वरोज़गार या उद्यमिता के माध्यम से काम करने का अवसर माँगता है, तो हमारा तंत्र उसे अंतहीन मुश्किलों और लालफीताशाही के सिवा क्या देता है? युवाओं का सरकारी नौकरी की तरफ झुकाव उनकी पहली पसंद हो सकती है लेकिन सबका नहीं, बल्कि अन्य विकल्पों की अनुपलब्धता और जोखिमों से पैदा हुई एक मज़बूरी है।

ज़मीनी हकीकत और नीतियों के मायाजाल ने राज्य गठन के बाद बीते ढाई दशकों में स्वरोज़गार के नाम पर योजनाओं का एक आकर्षक जाल बुना गया है । पर्यटन में होमस्टे से लेकर कृषि में ऑर्गेनिक खेती और MSME के लिए ऋण योजनाओं तक, कागज़ों पर एक स्वर्णिम तस्वीर पेश की गई। लेकिन ज़मीनी हकीकत इन घोषणाओं से कोसों दूर है। अधिकांश नीतियां देहरादून के बंद कमरों में बनती हैं और सीमांत गाँवों की चुनौतियो ! टूटी सड़कें, बाधित बिजली और अनुपस्थित इंटरनेट को समझने में पूरी तरह विफल रहती हैं।

अगर कोई युवा हिम्मत करके कुछ शुरू करना भी चाहे, तो उसे सरकारी दफ्तरों के अनगिनत चक्कर काटने पड़ते हैं। उत्पाद बना लेना एक चुनौती है, तो उसे बाज़ार तक पहुँचाना उससे भी बड़ी। एक मज़बूत सप्लाई चेन और बाज़ार उपलब्ध कराने में सरकार की विफलता उद्यमियों के हौसले को तोड़ देती है। बैंकों से ऋण लेना आज भी टेढ़ी खीर है, जहाँ बिना गारंटी और पहुँच के प्रोजेक्ट फाइलों में ही दम तोड़ देते हैं।

पलायन शौक नहीं, मजबूरी का दूसरा नाम है जनाब, जब एक ग्रामीण युवा देखता है कि उसकी खेती जंगली जानवरों द्वारा तबाह की जा रही है, गाँव में अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य का अभाव है, और कोई नया काम शुरू करने पर सहयोग के बजाय हर कदम पर बाधाएं खड़ी हैं, तो उसके पास पलायन के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। यह पलायन शौक नहीं, बल्कि उस सरकारी उदासीनता से जन्मी एक मज़बूरी है जो उसे अपनी ही मिट्टी में पराया बना देती है।

हम तो आए सुनहरे अवसर को भी खुली आँखें फेर देखते रहे महोदय, कोविड काल में लाखों अनुभवी और कुशल युवाओं की घर वापसी ने “रिवर्स माइग्रेशन” को स्थायी बनाने का एक ऐतिहासिक अवसर प्रदान किया था। इन युवाओं के पास अनुभव, कौशल और अपनी जड़ों के लिए कुछ करने का जज़्बा था। उन्होंने स्थानीय स्तर पर काम शुरू करने की कोशिश भी की, लेकिन हमारा तंत्र उनके स्वागत के लिए तैयार नहीं था। हर कदम पर लाइसेंस, NOC और मंजूरियों की bureaucratic बाधाओं ने उनके उत्साह को कुचल दिया। परिणाम? हालात सामान्य होते ही वही युवा निराश होकर शहरों को लौट गए, क्योंकि व्यवस्था ने उन्हें एहसास दिलाया कि यहाँ सम्मान से काम करना लगभग असंभव है।

देर भले हुई है लेकिन अबेर नहीं, हमको आत्ममंथन की अति आवश्यकता है ।समस्या योजनाओं की कमी की नहीं, बल्कि नीयत, क्रियान्वयन और सम्मान की है। अब समय आ गया है कि नीतियां बनाने वाले और उन्हें लागू करने वाले आत्ममंथन करें । जवाबदेही, सरलीकरण और धरातलीय जुड़ाव से विषमताओं को सम बनाया जा सकता है ।

आख़िर योजनाओं की जटिलता के कारण असफल हुए युवाओं की ज़िम्मेदारी कौन लेगा?
क्या वास्तव में एक ऐसा “सिंगल-विंडो सिस्टम” नहीं बनाया जा सकता, जहाँ युवा को भटकना न पड़े?
क्या नीतियां बनाने वाले अधिकारी गाँवों में जाकर युवाओं की वास्तविक समस्याओं को सुनते हैं?

बादबाक़ी जब तक व्यवस्था उद्यमी बनने की कोशिश कर रहे युवा को सम्मान की नज़र से नहीं देखेगी और उसे केवल एक सब्सिडी का लाभार्थी मानती रहेगी, तब तक कुछ नहीं बदलेगा। दोष युवाओं का नहीं, उस तंत्र का है जो उन्हें पंख देने के बजाय उनके पर कतर देता है।

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