उत्तराखंड

बाबा मोहन उत्तराखंडी : वो तपस्वी योद्धा, जो भूख से नहीं… विश्वासघात से मिटा!!

बाबा मोहन उत्तराखंडी : वो तपस्वी योद्धा, जो भूख से नहीं… विश्वासघात से मिटा!!

उत्तराखंड को राज्य बना दिया गया… पर बाबा मोहन को राजधानी गैरसैंण नहीं दी गई।

राज्य मिला, पर सपना अधूरा रह गया… उत्तराखंड आंदोलन की जब भी बात होगी, एक नाम हमेशा गूंजेगा – बाबा मोहन

उत्तराखंडी : वो एक ऐसा नाम, जो न तो राजनीति का चेहरा बना, न ही टीवी स्क्रीन पर चमका।

लेकिन अगर आज उत्तराखंड राज्य की कल्पना हकीकत बनी है, तो उसमें बाबा मोहन जैसे अनगिनत गुमनाम तपस्वियों की साधना छिपी है।

1948 में पौड़ी गढ़वाल के बठोली गांव (एकेश्वर ब्लॉक) में जन्मे मोहन सिंह नेगी, अपने गांव के सरल और दृढ़ संकल्पी युवक थे। उनके पिता मनवर सिंह नेगी ने उन्हें संघर्ष और आत्मसम्मान की शिक्षा दी थी।

धीरे-धीरे वह ‘बाबा मोहन उत्तराखंडी’ के नाम से पहचाने जाने लगे — एक अनशनकारी, एक आंदोलनकारी, एक उत्तराखंड-तपस्वी। उन्होंने राजनीति नहीं चुनी, आत्म-बलिदान का मार्ग चुना। अनशन उनकी साधना थी, और गैरसैंण राजधानी उनका संकल्प। उनका संघर्ष एक-दो बार का नहीं था, वो अकेले ही बार-बार मैदान में उतरते रहे, भूख की सीमा लांघते रहे — लेकिन न थके, न झुके।

उनके कुछ प्रमुख अनशन -आंदोलन
11 जनवरी 1997 : देवीधार (लैंसडाउन) में राज्य निर्माण हेतु पहला अनशन।

16 अगस्त 1997 : सतपुली के समीप माता सती मंदिर में 12 दिन का उपवास।

1 अगस्त 1998 : गुमखाल पौड़ी में 10 दिन का अनशन।

9 फरवरी – 5 मार्च 2001 : नंदाठौंक, गैरसैंण में राजधानी हेतु आमरण अनशन।

2 जुलाई – 4 अगस्त 2001 : गैरसैंण में लगातार भूखे रहकर राजधानी की मांग।

2002 से 2004 तक – चांदकोट, कौनपुरगढ़ी, कोदियाबगड़, बेनीताल सहित कई स्थलों पर निरंतर अनशन।

9 अगस्त 2004 को जब वे गैरसैंण लौट रहे थे, सड़क पर ही उन्होंने दम तोड़ दिया।

ये मौत भूख से ज़्यादा… उपेक्षा और अनदेखी से हुई। इतिहास में पहली बार… एक आंदोलनकारी भूख से मिटा हमने आज़ादी की लड़ाई पढ़ी, आंदोलन देखे…पर शायद ही किसी राज्य आंदोलन में ऐसा हुआ होगा, जहाँ कोई भूखा रहकर चुपचाप खत्म हो गया — बिना हिंसा, बिना बवाल, बिना कैमरे। यह सिर्फ मौत नहीं थी, यह व्यवस्था पर एक करारा तमाचा था। यह उस उत्तराखंड का अपराध था, जिसे उन्होंने जन्म देने में अपनी पूरी जिंदगी खपा दी।

क्या आज के नेता उनकी तस्वीर लगाने का साहस रखते हैं? हर जनप्रतिनिधि, जो आज सत्ता और सुविधा में बैठा है –क्या उसने बाबा मोहन का नाम लिया? क्या किसी सचिवालय, किसी सरकारी भवन में उनकी तस्वीर है?क्या कोई सड़क, कोई भवन, कोई शिलापट्ट उनकी याद दिलाता है? नहीं। क्योंकि बाबा मोहन ने वोट नहीं मांगे, सिर्फ संकल्प किया। उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा, आंदोलन लड़ा। उनका सपना कोई कुर्सी नहीं थी — उनका सपना था गैरसैंण राजधानी। बाबा मोहन उत्तराखंडी का सपना अधूरा है… पर उनकी तपस्या अमर है। जिस दिन गैरसैंण सच में राजधानी बनेगा, उस दिन उत्तराखंड उन्हें सही मायनों में ‘शहीद’ मानेगा। आज वो हमारे इतिहास के पन्नों से बाहर निकाले जाने की पुकार कर रहे हैं। नमन है उस तपस्वी योद्धा को, जो भूख से नहीं… विश्वासघात से मिट गया।
आज उनके बलिदान दिवस पर उन्हें सादर नमन!

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