ये है देश की संस्कृत शिक्षा का ‘कड़वा’ सच

दो महीने से बगैर वीसी के ही चल रहा यह केंद्रीय विवि
180 अस्थायी गेस्ट टीचर ढाई माह से घर में
दूसरे सेमेस्टर की 80 फीसदी पढ़ाई है अधूरी
12 अगस्त से परीक्षाएं कराने की है तैयारी
पढ़ाई ही नहीं तो छात्र क्या लिखेंगे कॉपी में
देशभऱ में संस्कृत विवि के है 12 कैंपस
नई दिल्ली। संस्कृत शिक्षा की दुनिया के खेल निराले हैं। यहां शतरंज की चालें चल रही हैं। और परिणाम यह है कि संस्कृत बीमार हालत में चली गई है। उसके छात्रों के साथ धोखा हो रहा है और संस्कृत पढ़ाने वाले अस्थायी अध्यापकों की घर-गृहस्थी चौपट हो रही है।
केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय में चल रही धींगामुश्ती को समझकर आप इस सच से रू-ब-रू हो जाएंगे। यह यूनिवर्सिटी लगभग दो महीने से बिना मालिक यानी बिना कुलपति के चल रही है। यहां तक कि प्रभारी वीसी भी नहीं है। ढाई महीने से यहां पढ़ाने वाले 180 अस्थायी टीचरों को बेरोजगार कर घरों में बैठाया गया है। अब परीक्षाएं सिर पर हैं तो छात्र सकपकाए हुए हैं, क्योंकि उनका दूसरे सेमेस्टर का कोर्स 80 प्रतिशत तक बाकी है। विवि ने परीक्षाओं के आयोजन की तैयारी तो कर ली है, लेकिन छात्र परीक्षाओं में क्या लिखेंगे, इससे उसे कोई मतलब नहीं है।
केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय इससे पहले राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान कहलाता था। इसका मुख्यालय दिल्ली के जनकपुरी में है और पूरे देश में इसके 12 कैंपस हैं। इनमें संस्कृत साहित्य, ज्योतिष, व्याकरण, वेद, वेदांत, न्याय आदि समेत कुछ अन्य आधुनिक विषय पढ़ाए जाते हैं। पिछले साल राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान को डीम्ड यूनिवर्सिटी से केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय बनाया गया। इसे सेंट्रल यूनिर्सिटी तो बनया गया, लेकिन नाम के अलावा और कुछ भी बदलाव नहीं हुआ। यहां 180 के लगभग प्राध्यापक वर्षों से गेस्ट और कांट्रैक्ट व्यवस्था पर पढ़ाते आ रहे हैं। गेस्ट को 40 और कांट्रैक्ट अध्यापक को 60 हजार मिलते हैं, वह भी सालभर में लगभग दस महीने ही। इनके मानदेय में भी यूजीसी के नियमों की धज्जियां उड़ायी जा रही हैं।
विश्वविद्यालय के शिक्षण की रीढ़ समझे जाने वाले इन टेंपररी टीचर्स की संख्या यूनिवर्सिटी के कुल अध्यापकों की 45 प्रतिशत बताई जाती है। खास बात यह है कि इनका मानदेय वेतन मद में न देकर प्रोजेक्ट फंड में आता है। यानी ये एक प्रकार से परियोजना कार्य का हिस्सा हैं, न कि शिक्षण कर्मचारी। अब इस यूनिवर्सिटी के मंत्रालय से हटकर यूजीसी के अंडर में चले जाने से या तो इन अस्थायी प्राध्यापकों के मानदेय के लाले पड़ सकते हैं या फिर इन्हें नौकरी से हमेशा के लिए हटाना पड़ सकता है। यदि ऐसा हुआ तो यूनिवर्सिटी में शिक्षण कार्य ठप होना तय है।
खास बात यह है कि इन अस्थायी प्राध्यापकों को हर साल शिक्षण सत्र के अंत में रिलीव कर दिया जाता था, लेकिन इस साल यूनिवर्सिटी ने बिना सोचे-समझे दूसरे शिक्षण सत्र की शुरुआत में ही कार्यमुक्त कर दिया। 22 मई को ये सिस्टम से बाहर हुए तो अभी तक यानी ढाई महीने बाद भी व्यवस्था का अंग नहीं बन बन पाये। यानी कोरोना काल में इनके चूल्हे बुझा दिए गए। इन लोगों की आर्थिकी बुरी तरह चरमरा गयी है।
इन्हें पुनः नियुक्ति न दिए जाने का कारण वीसी का न होना बताया जा रहा है। यहां के स्थायी वीसी प्रो0 पी0एन0 शास्त्री 14 जून को सेवानिवृत्त हो चुके हैं। तब से यहां स्थायी तो दूर, कार्यवाहक वीसी भी नियुक्त नहीं हो पाया। ऐसे में अस्थायी अध्यापकों की पुनर्नियुक्ति की फाइल अप्रूव नहीं हो पा रही है, लेकिन विवि और मंत्रालय ने इसके अलावा ऐसा कोई रास्ता नहीं निकाला, जिससे इन्हें वैकल्पिक व्यवस्था के तहत अंदर किया जाए। ये लोग निराशा, अवसाद और चिंताओं के दौर से गुजर रहे हैं। उन्हें बच्चों की फीस, राशन और दवा की खर्चे की चिंताएं खाये जा रही हैं।
15-20 साल से अपर्याप्त मानदेय पर सेवाएं देते आ रहे इन अध्यापकों ने कभी सोचा भी न होगा कि उनके साथ विश्वविद्यालय कभी ऐसा निर्मम व्यवहार करेगा।
इन अध्यापकों का संगठन केंद्रीय शिक्षा मंत्री से लेकर कुछ सांसदों से संपर्क कर चुका है, लेकिन अभी तक इनकी बहाली नहीं हो पायी है। अब आप सोचिए, जब गुरु ही नहीं रहेंगे तो विश्वविद्यालय किस बात का? और गुरु ही नहीं रहेंगे तो छात्रों को ज्ञान कैसे मिलेगा? विश्वविद्यालय 12 अगस्त से दूसरे सेमेस्टर की परीक्षाएं कराने जा रहा है। यह उसकी मजबूरी है,क्योंकि यूजीसी का फरमान आ चुका है। पता चला है कि विश्वविद्यालय तनाव और दबाव में व्यवस्था कर रहा है, लेकिन प्रोजेक्ट वर्क, मूल्यांकन कैसे होगा, उसके सामने यह भी चुनौती है। वह अस्थायी प्राध्यापकों का दायित्व भी परमानेंट टीचरों को दे रहा है, जिससे उन पर काम का दबाव बढ़ गया है, लेकिन दिक्कत वहां आ रही है, जब टेंपरेरी टीचर के विषय का परमानेंट टीचर भी न हो।
सबसे बड़े धर्मसंकट में विश्वविद्यालय के हजारों छात्र बताए जा रहे हैं। बताया जाता है कि अप्रैल मध्य में उनका दूसरे सेमेस्टर की पढ़ाई शुरू हुई थी और 22 मई को ग्रीष्म अवकाश घोषित करते हुए विश्वविद्यालय ने अस्थायी अध्यापकों को कार्यमुक्त कर दिया था। इस हिसाब से बच्चों की कक्षाएं कुलमिलाकर 30-35 दिन ही चली होंगी। अब आप अनुमान लगा सकते हैं कि जिस कोर्स के लिए लगभग साढ़े चार महीने चाहिए थे, वह लगभग एक महीने में कैसे पूरा हो गया होगा? क्योंकि पढ़ाई आॅनलाइन हो रही थी, अतः छात्रों को भी फरमान जारी कर दिया गया कि 12 अगस्त से परीक्षाएं होंगी। ऐसे में छात्र बेहद मानसिक तनाव और चिंता में हैं कि भले ही परीक्षा ओपन बुक सिस्टम में है, लेकिन जो विषय पढ़े ही नहीं, उन संबंधी प्रश्नों का उत्तर भी किताब में कैसे खोजें। सवाल यह भी है कि छात्रों के पास कुछ विषय की तो पुस्तकें ही नहीं होती हैं। अध्यापक अपने जुगाड़ से सामग्री जुटाकर बच्चों को उपलब्ध कराते हैं या पढ़ाते हैं, इसलिए इस बार वे इस सामग्री से भी वंचित हैं।
बहरहाल, बताया यह भी जा रहा है कि विश्वविद्यालय में अस्थायी अध्यापकों को रिज्वाइन कराने के फिलहाल कोई आसार नहीं हैं, क्योंकि कार्यवाहक कुलपति अभी नियुक्त नहीं किया जा रहा है और स्थायी कुलपति की नियुक्ति की फाइल कहीं अटकी हुई है। ऐसी स्थिति में विश्वविद्यालय में कुलपति कितने दिन में मिलेगा, अभी भविष्य के गर्भ में है।