उत्तराखंड

एक गुमनाम शायर अहक़र काशीपुरी की जन्म शताब्दी

जन्मशताब्दी:अहक़र काशीपुरी
वाचस्पति
उत्तराखंड की तराई में काशीपुर वाणिज्य- उद्योग का विकसित होता नगर है। मैं बनारस से यहाँ महाविद्यालय में फरवरी, 1975 में हिन्दी-सेवा की नौकरी पर पहुँचा। बनारस के साहित्यिक माहौल का खालीपन भरने में नयी जगह काशीपुर में एकमात्र बुद्धिजीवी मुझे बीपी भटनागर अहक़र काशीपुरी मिले।

उनकी चर्चा से पहले कुछ पंक्तियां काशीपुर के बारे में–
काशीपुर दिल्ली से उत्तर चार घंटे दूरी पर उत्तर रेलवे का जंक्शन है जहाँ से आगे उत्तर दिशा में अंतिम स्टेशन रामनगर के निकट जिमकार्बेट नेशनल पार्क को रास्ता जाता है।

आज की सर्वग्रासी राजनीति ने सिनेमा, क्रिकेट के सहयोग से साहित्य-संस्कृति-कला को विरूपित कर दिया है। अतीत के काशीपुर में कुछ गौरवशाली नाम हैं।लोकरत्न गुमानी पन्त (1790-1846 ) का जन्म काशीपुर में हुआ था। आधुनिक हिन्दी साहित्य के पुरोधा भारतेंदु हरिश्चंद्र (1850-1885 ई.) से पहले गुमानी पंत साहित्य में सक्रिय हुए।

सर जार्ज ग्रियर्सन ने भारत का भाषा सर्वेक्षण ग्रंथ में गुमानी को कुमाऊनी का प्राचीन कवि बताया है।
वे संस्कृत कुमाऊनी नेपाली हिन्दी के सिद्ध कवि हैं।
क्रांतिकारी लेखक यशपाल ने ” सिंहावलोकन ” पुस्तक में बचपन का समय द्रोणसागर के सामने कपास मिल में बीतने का जिक्र किया है। यशपाल (1903-1976)
की माता जी काशीपुर में कुछ अवधि के लिए शिक्षिका रहीं।

द्रोणसागर सरोवर से सटा पूर्व में गोविषाण टीला है। चीनी यात्रियों फाहियान (399-414ई.) ह्वेनसांग (621-645 ई.) में प्रमुख बौद्ध स्थल के रूप में जिक्र मिलता है। बीपी भटनागर ने हिंदी-अँग्रेज़ी में लगातार लिखकर काशीपुर के इस ऐतिहासिक स्थान की महत्ता पर प्रकाश डाला। उनके मिशन में अनन्य सहयोगी वरिष्ठ पत्रकार कमल शर्मा की सक्रिय भूमिका रही। भटनागर जी की लिखा-पढ़ी से गोविषाण में 1966-1969 में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण ने उत्खनन कराया। पुरातात्त्विक महत्त्व की बहुमूल्य सामग्री संग्रहालय में सुरक्षित है।

अहक़र काशीपुरी ने उर्दू हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान किया। भाषा के सहज प्रवाह और जीवन की कोमल अनुभूति उनके काव्यगुण हैं। यत्र-तत्र बिखरी रचनाओं को संकलित संपादित रूप में यदि प्रकाशित किया जाए तो अहक़र साहब के रचना-सामर्थ्य से साक्षात्कार संभव हो सकेगा। काशीपुर में 1981में बाबा नागार्जुन और 1991 में कवि त्रिलोचन की आत्मीय भेंट अहक़र साहब से हुई।
वे भी क्या दिन थे!

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