उत्तराखंडियतः 91 में हार की बात पर खफा हो गए थे एनडी तिवारी

हरदा ने अपनी किताब में खोले हैं तमाम सियासी रहस्य
न हारते तो देश के प्रधानमंत्री होते नारायण दत्त तिवारी
एनडी रोड़ा न अटकाते तो उत्तराखंड बन ही जाता यूटी
सियासी जरूरत न होने पर भी करता रहा उनका सम्मान
91 के बाद नहीं हासिल कर पाया एनडी तिवारी का वो प्रेम
देहरादून। उत्तराखंड कांग्रेस के दिग्गज नेता और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की एक नई किताब उत्तराखंडियत इन दिनों खासी चर्चा में है। हरदा ने इस किताब के कुछ पन्ने स्व. नारायण दत्त तिवारी को भी समर्पित किए हैं। इन पन्नों में हरदा ने ये साबित करने की कोशिश की है कि तमाम सम्मान के बाद भी उन्हें एनडी का वो प्यार न मिल सका, जिसके वो हकदार थे। हरदा लिखते हैं कि अगर एनडी ने रोड़ा न अटकाया होता तो नरसिम्हाराव राव की सरकार में ही उत्तराखंड केंद्र शासित प्रदेश बन गया होता। वो यह भी लिखते हैं कि 1991 के आम चुनाव में मैंने जब एनडी से कहा कि मैं और आप दोनो हार रहे हैं तो उसी समय से वे बहुत नाराज हो गए थे।
हरदा लिखते हैं कि एनडी से उनकी पहली मुलाकात लखनऊ में हुई। उस वक्त मैं लखनऊ विवि में छात्रनेता के रूप में सक्रिय था। लंबी अचकन, कुर्ता और चौड़ा सा पायजामा, घुंघराले बाल तिवारी जी अच्छे लगे। कुमाऊंनी भाषा में उन्होंने मेरा पूरा हुलिया पूछ लिया। नतीजा यह रहा कि मैंने उन्हें एक गोष्ठी के लिए आमंत्रित कर लिया। उन्होंने बहुत ही लच्छेदार भाषण दिया। पर वो मुझे भूल गए कि मैंने ही उन्हें बुलाया था। इसके बाद से अपने संबंध आगे नहीं बढ़ सके। डेढ़ साल बाद विवि कैंपस में एक कार्य़क्रम था। मुझे किसी से संदेश भिजवाया कि वो भी संबोधित करना चाहते हैं। राज्य में संविदा की सरकार थी। सरकार ने कहा कि इंदिरा जी की घुसने नहीं दिया जाएगा। राजनारायण ने बटलर हास्टल में कब्जा कर लिया। हमने सभी विरोधियों को हॉस्टल के कमरों और बॉथरूम में बंद कर दिया। इंदिरा जी आईं और 50 मिनट बोलकर सभी की दिल जीत ले गईं। उस समय एनडी चाहते थे कि मैं अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर उन्हें मंच पर स्थान दूं। पर उस वक्त कांग्रेस में इंटीकेट और सिंडीकेट का दौर चल रहा था।
उस वक्त तक मैं तिवारी को आदर्श पुरुष मानने लगा था। हर दौरे पर उनके साथ रहता था। मैं जिला युवक कांग्रेस का अध्यक्ष बन गया और कार्यक्रम में मैंने हेमवती नंदन बहुगुणा की तारीफ कर दी। इसके तिवारी जी मुझसे दूर हो गए। इस बीच मैं संजय गांधी के संपर्क में आया। 1977 के चुनाव में कांग्रेस हार गई। बड़े-बड़े नेता भाग गए। लेकिन एक साल में ही हर जगह इंदिरा गांधी जिंदाबाद के नारे गूंजने लगे। संजय जी की वजह से मुझे इंदिरा जी का आशीर्वाद मिला। उन्होंने मुझे लोकसभा का टिकट दिया। मैं भक्तिभाव से तिवारी जी के पास गया।
1991 तक मेरा एनडी से संबंध बना रहा। लेकिन मुझे लगता रहा है कि उनके प्रति मेरा ये प्रेम एकांगी ही ही। वो बहुत गहरे थे। एक तरफ राजीव जी से मेरी नजदीकियां बढ़ रही थी तो तिवारी जी से दूरी बढ़ रही थी। केसी पंत कांग्रेस में वापस आए तो एनडी को लगा कि मैंने ही ऐसा किया है। राजीव जी की मौत के बाद कांग्रेस में पीएम पद की चर्चा होने लगी। उस वक्त मैं कांग्रेस का सचेतक था। तिवारी जी का नाम भी पीएम पद के लिए चर्चा में था। एक दिन तिवारी जी मेरे घर आए और कहा कि वे भी दावेदार हैं। मैंने उनकी पूरी मदद की बात की। बात चुनाव की आई तो मैंने आशंका जाहिर कि हालात आपके पक्ष में नहीं हैं। मैं भी चुनाव हार रहा हूं। इतना सुनते ही गोरे तिवारी काले पड़ गए। और उनके मन में गहरी दरार पड़ गई। नतीजे आए तो मैं तो तिवारी जी चुनाव हार चुके थे। नरसिम्हाराव पीएम बन गए।
पीएम मुझे उत्तर प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाना चाहते थे। तिवारी जी की जितेंद्र प्रसाद, सिंधिया और पायलट से दूरी थी। बेअंत सिंह समिति से ही मेरे नाम की सिफारिश की थी। लेकिन तिवारी जी ने मुझे दरकिनार करने के लिए खुद को दांव पर लगा दिया। शायद पीएम राव भी यही चाहते थे कि तिवारी राज्य तक ही सीमित हो जाएं। इसके बाद ही तिवारी कांग्रेस की नींव पड़ी।
रामपुर तिराहा कांड, खटीमा और मसूरी कांड के बाद कांग्रेस अप्रसांगिक हो चुकी थी। मैंने पीएम राव को किसी तरह से मनाया कि उत्तराखंड के यूटी बना दिया जाए। इसके लिए वो तैयार ही हो गए थे। मैंने पीएस हाउस में तिवारी जी, केसी पंत, जितेंद्र प्रसाद, बलराम जी, महावीर प्रसाद और अजीत सिंह को बुलाया। पीएम के सचिव ने उन्हें यूटी की घोषणा का पर्चा भी थमा दिया था। पर तिवारी जी से कहा कि स्व. गोविंद बल्लभ पंत भी विभाजन के पक्ष में नहीं थे। उनका कहना था कि यूपी की विभाजन उनकी लाश पर होगा। तिवारी ने कहा कि मैं भी इसके पक्ष में हूं। इसके बाद पीएम की हिम्मत ही न पड़ी।
वक्त बीतता गया औऱ तिवारी एक बार फिर से कांग्रेस में आ गए। मैं उत्तराखंड कांग्रेस का अध्यक्ष बना और एक कार्यालय बनाया। इसके उद्घाटन के लिए तिवारी जी को भी बुलाया। 2002 में कांग्रेस चुनाव जीती और तिवारी जी सीए बन गए। मीडिया में कुछ भी चलता रहा हो पर तिवारी जी कई बार मेरा सिर सहला देते थे। लेकिन मैं इतना जरूर कहूंगा कि 1991 के बाद मैं तिवारी जी का स्नेह और विश्वास कभी भी हासिल नहीं कर पाया। किच्छा में मुझे चुनाव हराने के लिए लोगों ने तिवारी जी रिक्शा में घुमा दिया। उनके नाम के पर्चे छपवाकर मुझे हराने की अपील की गई। मैंने तिवारी जी को हमेशा ही कांग्रेस के एक दिग्गज नेता के रूप में देखा है।
(ये पूरी खबर हरीश रावत की किताब उत्तराखंडियत मेरा लक्ष्य पर आधारित है। तिवारी जी अब इस दुनिया में नहीं हैं। लिहाजा हरदा की बातों का कोई काउंटर नहीं हो सकता।)